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"बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को / अदम गोंडवी" के अवतरणों में अंतर
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+ | पार कर पाएगी ये कहना मुकम्मल भूल है, | ||
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23:14, 4 नवम्बर 2012 के समय का अवतरण
बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को,
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को ।
सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए,
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़्वान को ।
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून,
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को ।
पार कर पाएगी ये कहना मुकम्मल भूल है,
इस अहद की सभ्यता नफ़रत के रेगिस्तान को ।