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"सुन कर बोल कर / संगीता गुप्ता" के अवतरणों में अंतर
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चुभता है कभी षूल - सा | चुभता है कभी षूल - सा |
21:14, 7 दिसम्बर 2012 के समय का अवतरण
सुन कर
बोल कर
पढ़ कर
नहीं जाना जा सकता सच
आत्मसात् करना पड़ता है उसे
फूटता है वह
अंगार की तरह मन में
दहकता रहता है लगातार
कभी दृश्य कभी अदृश्य
खिलता है कभी फूल - सा
चुभता है कभी षूल - सा
उधार का कभी नहीं होता
होता है सिर्फ अपना
उमड़ता
उमगंता हुआ
मगर
केवल हुलसाता हुआ नहीं
कई बार
झुलसाता हुआ भी