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|रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
}}
{{KKCatKavita}}<poem>एक थे नव्वाब,फ़ारस से मंगाए थे गुलाब।बड़ी बाड़ी में लगाएदेशी पौधे भी उगाएरखे माली, कई नौकरगजनवी का बाग मनहरलग रहा था।एक सपना जग रहा थासांस पर तहजबी की,गोद पर तरतीब की।क्यारियां सुन्दर बनीचमन में फैली घनी।फूलों के पौधे वहाँलग रहे थे खुशनुमा।बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी,जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी,चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास,गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज,और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई,रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई,आसमानी, सब्ज, फ़िरोज सफ़ेद,जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद।फ़लों के भी पेड़ थे,आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे।चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध,लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द,चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां,बाग चिड़ियों का बना था आशियाँ।साफ़ राह, सरा दानों ओर,दूर तक फैले हुए कुल छोर,बीच में आरामगाहदे रही थी बड़प्पन की थाह।कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी,कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी।आया मौसम मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब, बाग पर उसका जमा पड़ा था रोबोदाबरोब-ओ-दाब;वहीं गंदे पर गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता उठाकर पहाड़ी से उठे-सर शिखर से अकडकर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता- अबे“अब, सुन बे , गुलाब,भूल मत जो पाई खुशबूपायी खुशबु, रंगोआबरंग-ओ-आब
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
 डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट;केपीटलिस्ट! बहुतों कितनों को तूने बनाया है गुलाम, माली कर रक्खा, खिलाया जाडा सहाया जाड़ा-घाम;  ,
हाथ जिसके तू लगा,
 पैर सर पर रखकर वह वो पीछे को भगा,भागाऔरत की जानिब औरत के लडाई छोडकरमैदान यह छोड़करतबेले को टट्टू जैसे तबेले को तोडकर।तोड़कर,शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा, इसलिए तभी साधारणों से तू रहा न्यारा,न्यारा।वरना क्या तेरी हस्ती है तेरी, पोच तू; काँटों कांटो ही से भरा है, यह सोच तू; लाली कली जो चटकी अभी चटकी सूखकर कभी काँटा कांटा हुई होती,कभी। घडों पडता रोज पड़ता रहा पानी, 
तू हरामी खानदानी।
चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसा
जो निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशा
बहाकर ले चले लोगो को, नही कोई किनारा
जहाँ अपना नहीं कोई भी सहारा
ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा
पेट में डंड पेले हों चूहे, जबां पर लफ़्ज प्यारा।
देख मुझको, मैं बढ़ा
डेढ़ बालिश्त और ऊंचे पर चढ़ा
और अपने से उगा मैं
बिना दाने का चुगा मैं
कलम मेरा नही लगता
मेरा जीवन आप जगता
तू है नकली, मै हूँ मौलिक
तू है बकरा, मै हूँ कौलिक
तू रंगा और मैं धुला
पानी मैं, तू बुलबुला
तूने दुनिया को बिगाड़ा
मैंने गिरते से उभाड़ा
तूने रोटी छीन ली जनखा बनाकर
एक की दी तीन मैने गुन सुनाकर।
चाहिये तूझको सदा मेहरुन्निसा जो निकले इत्रोरुह ऐसी दिसा बहाकर ले चले लोगों को, नहीं कोई किनारा, जहाँ अपना नही कोई सहारा, ख्वाब मे डूबा चमकता हो सितारा, पेट मे डंड पेलते चूहे, जबाँ पर लफ़्ज प्यारा।  देख मुझको मै बढा, डेढ बालिश्त और उँचे पर चढा, और अपने काम मुझ ही से उगा मै, नही दाना पर चुगा मै, कलम मेरा नही लगता, मेरा जीवन आप जगता, तू सधा है नकली, मै हूँ मौलिक, तू शेर भी मुझसे गधा है बकरा, मै हूँ कौलिक, तू रंगा, और मै धुला, पानी मैं तू बुलबुला, तूने दुनिया को बिगाडा, मैने गिरते से उभाडा, तूने जनखा बनाया, रोटियाँ छीनी, मैने उनको एक की दो तीन दी।  चीन मे में मेरी नकल , छाता बना, छत्र भारत का वहाँ वही, कैसा तना; हर सब जगह तू देख ले, आज का यह फिर रूप पैराशूट ले। विष्णु का मै मैं ही सुदर्शन चक्र हूँ,सुदर्शनचक्र हूँ।काम दुनिया मे पडा पड़ा ज्यों, वक्र हूँ,हूँ।उलट दे, मै मैं ही जसोदा की मथानी, और भी लम्बी कहानी,-सामने ला कर लाकर मुझे बैंडा,बेंड़ादेख कैंडा, तीर से खींचा धनुष मै मैं राम का,का।काम का- पडा कंधे पड़ा कन्धे पर हूँ हल बलराम का;का।सुबह का सूरज हूँ मै मैं ही, चाँद मै चांद मैं ही शाम का।कलजुगी मैं ढालनाव का;मैं तला नीचे और ऊपर पाल।मैं ही डांड़ी से लगा पल्लासारी दुनिया तोलती गल्लामुझसे मूछें, मुझसे कल्लानही मेरे हाडउल्लू, काँटे, काठ मेरे लल्लाकहे रूपया याअधन्नाहो बनारस या न्यवन्नानही रूप मेरा बदन आठोगाँठ का।, मै चमकतागोला मेरा ही बमकता।रस लगाता हूँ पार मैं ही रस मेरा रहा,डुबाता मझधार मैं ही।इस सफ़ेदी को जहन्नुम रो गया।डब्बे का मैं ही नमूना दुनिया मे सभी ने मुझ से रस चुरायापान मैं हीरस मे मै डुबा उतराया। मुझी मे गोते लगाये आदिकवि ने, व्यास ने, मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने देखते रह गये मेरे किनारे पर खडे हाफ़िज़ और टैगोर जैसे विश्ववेत्ता जो बडे।मैं ही चूना
कही का रोडामैं कुकुरमुत्ता हूँ, कही का लिया पत्थरपर बेन्जाइन (Bengoin) वैसेबने दर्शनशास्त्र जैसे।ओमफ़लस (Omphalos) और ब्रहमावर्तवैसे ही दुनिया के गोले और पर्तजैसे सिकुड़न और साड़ी,ज्यों सफ़ाई और माड़ी।कास्मोपालिटन और मेट्रोपालिटनजैसे फ़्रायड और लीटन।फ़ेलसी और फ़लसफ़ाजरूरत और हो रफ़ा।सरसता में फ़्राडकेपिटल में जैसे लेनिनग्राड।सच समझ जैसे रकीबलेखकों में लण्ठ जैसे खुशनसीब
टी.एस.ईलियट ने जैसे दे मारामैं डबल जब,बना डमरूइकबगल, तब बना वीणा।मन्द्र होकर कभी निकलाकभी बनकर ध्वनि छीणा।मैं पुरूष और मैं ही अबला।मै मृदंग और मैं ही तबला।चुन्ने खां के हाथ का मैं ही सितारदिगम्बर का तानपूरा, हसीना का सुरबहार।मैं ही लायर, लिरिक मुझसे ही बनेसंस्कृत, फ़ारसी, अरबी, ग्रीक, लैटिन के जनेमन्त्र, गज़लें, गीत, मुझसे ही हुए शैदाजीते है, फिर मरते है, फिर होते है पैदा।वायलिन मुझसे बजाबेन्जो मुझसे सजा।घण्टा, घण्टी, ढोल, डफ़, घड़ियाल,शंख, तुरही, मजीरे, करताल,करनेट, क्लेरीअनेट, ड्रम, फ़्लूट, गीटर,बजानेवाले हसन खां, बुद्धू, पीटर,मानते हैं सब मुझे ये बायें से,जानते हैं दाये से।
पढने वालो ने जिगर पर ताताधिन्ना चलती है जितनी तरहदेख, सब में लगी है मेरी गिरहनाच में यह मेरा ही जीवन खुलापैरों से मैं ही तुला।कत्थक हो या कथकली या बालडान्स,क्लियोपेट्रा, कमल-भौंरा, कोई रोमान्सबहेलिया हो, मोर हो, मणिपुरी, गरबा,पैर, माझा, हाथ रखकर, गरदन, भौंहें मटकानाच अफ़्रीकन हो या यूरोपीयन,सब में मेरी ही गढ़न।किसी भी तरह का हावभाव,मेरा ही रहता है सबमें ताव।मैने बदलें पैंतरे,जहां भी शासक लड़े।पर हैं प्रोलेटेरियन झगड़े जहां,मियां-बीबी के, क्या कहना है वहां।नाचता है सूदखोर जहां कहीं ब्याज डुचता,नाच मेरा क्लाईमेक्स को पहुचंता।
कहा कैसा लिख नहीं मेरे हाड़, कांटे, काठ कानहीं मेरा बदन आठोगांठ का।रस-ही-रस मैं हो रहासफ़ेदी का जहन्नम रोकर रहा।दुनिया में सबने मुझी से रस चुराया,रस में मैं डूबा-उतराया।मुझी में गोते लगाये वाल्मीकि-व्यास नेमुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने।टुकुर-टुकुर देखा किये मेरे ही किनारे खड़ेहाफ़िज-रवीन्द्र जैसे विश्वकवि बड़े-बड़े।कहीं का रोड़ा, कही का पत्थरटी.एस. एलीयट ने जैसे दे मारापढ़नेवाले ने भी जिगर पर रखकरहाथ, कहां,’लिख दिया संसार साराजहां सारा’।ज्यादा देखने को आंख दबाकरशाम को किसी ने जैसे देखा तारा।जैसे प्रोग्रेसीव का कलम लेते हीरोका नहीं रूकता जोश का पारायहीं से यह कुल हुआजैसे अम्मा से बुआ।मेरी सूरत के नमूने पीरामेडमेरा चेला था यूक्लीड।रामेश्वर, मीनाछी, भुवनेश्वर,जगन्नाथ, जितने मन्दिर सुन्दरमैं ही सबका जनकजेवर जैसे कनक।हो कुतुबमीनार,ताज, आगरा या फ़ोर्ट चुनार,विक्टोरिया मेमोरियल, कलकत्ता,मस्जिद, बगदाद, जुम्मा, अलबत्तासेन्ट पीटर्स गिरजा हो या घण्टाघर,गुम्बदों में, गढ़न में मेरी मुहर।एरियन हो, पर्शियन या गाथिक आर्चपड़ती है मेरी ही टार्च।पहले के हो, बीच के हो या आज केचेहरे से पिद्दी के हों या बाज के।चीन के फ़ारस के या जापान केअमरिका के, रूस के, इटली के, इंगलिस्तान के।ईंट के,पत्थर के हों या लकड़ी केकहीं की भी मकड़ी के।बुने जाले जैसे मकां कुल मेरेछत्ते के हैं घेरे।
देखने के लिये आँखे दबाकर सर सभी का फ़ांसनेवाला हूं ट्रेपटर्की टोपी, दुपलिया या किश्ती-केप।और जितने, लगा जिनमें स्ट्रा या मेट,देख, मेरी नक्ल है अंगरेजी हेट।घूमता हूं सर चढ़ा,तू नहीं, मैं ही बड़ा।”
जैसे संध्या को किसी ने देखा तारा'''(२)'''बाग के बाहर पड़े थे झोपड़ेदूर से जो देख रहे थे अधगड़े।जगह गन्दी,रूका, सड़ता हुआ पानीमोरियों मे; जिन्दगी की लन्तरानी-बिलबिलाते किड़े, बिखरी हड्डियांसेलरों की, परों की थी गड्डियांकहीं मुर्गी, कही अण्डे,धूप खाते हुए कण्डे।हवा बदबू से मिलीहर तरह की बासीली पड़ी गयी।रहते थे नव्वाब के खादिमअफ़्रिका के आदमी आदिम-खानसामां, बावर्ची और चोबदार;सिपाही, साईस, भिश्ती, घुड़सवार,तामजानवाले कुछ देशी कहार,नाई, धोबी, तेली, तम्बोली, कुम्हार,फ़ीलवान, ऊंटवान, गाड़ीवानएक खासा हिन्दु-मुस्लिम खानदान।एक ही रस्सी से किस्मत की बंधाकाटता था जिन्दगी गिरता-सधा।बच्चे, बुड्ढे, औरते और नौजवानरह्ते थे उस बस्ती में, कुछ बागबानपेट के मारे वहां पर आ बसेसाथ उनके रहे, रोये और हंसे।
एक मालिनबीबी मोना माली की थी बंगालिन;लड़की उसकी, नाम गोलीवह नव्वाबजादी की थी हमजोली।नाम था नव्वाबजादी का बहारनजरों में सारा जहां फ़र्माबरदार।सारंगी जैसी चढ़ीपोएट्री में बोलती थीप्रोज में बिल्कुल अड़ी।गोली की मां बंगालिन, बहुत शिष्टपोयट्री की स्पेशलिस्ट।बातों जैसे प्रोग्रेसीव मजती थीसारंगी वह बजती थी।सुनकर राग, सरगम तानखिलती थी बहार की जान।गोली की मां सोचती थी-गुर मिला,बिना पकड़े खिचे कानदेखादेखी बोली मेंमां की अदा सीखी नन्हीं गोली ने।इसलिए बहार वहां बारहोमासडटी रही गोली की मां केकभी गोली के पास।सुबहो-शाम दोनों वक्त जाती थीखुशामद से तनतनाई आती थी।गोली डांडी पर पासंगवाली कौड़ीस्टीमबोट की डोंगी, फ़िरती दौड़ी।पर कहेंगे-‘साथ-ही-साथ वहां दोनो रहती थींअपनी-अपनी कहती थी।दोनों के दिल मिले थेतारे खुले-खिले थे।हाथ पकड़े घूमती थींखिलखिलाती झूमती थीं।इक पर इक करती थीं चोटहंसकर होतीं लोटपोट।सात का लेखनी लेतेदोनों का सिनखुशी से कटते थे दिन।महल में भी गोली जाया करती थीजैसे यहां बहार आया करती थी।
नही रोका रुकता जोश एक दिन हंसकर बहार यह बोली-“चलो, बाग घूम आयें हम, गोली।”दोनों चली, जैसे धूप, और छांहगोली के गले पड़ी बहार की बांह।साथ टेरियर और एक नौकरानी।सामने कुछ औरतें भरती थीं पानीसिटपिटायी जैसे अड़गड़े मे देखा मर्द कोबाबू ने देखा हो उठती गर्दन को।निकल जाने पर बहार के, बोलीपहली दूसरी से, “देखो, वह गोलीमोना बंगाली की लड़की ।भैंस भड़्की,ऎसी उसकी मां की सूरतमगर है नव्वाब की आंखों मे मूरत।रोज जाती है महल को, जगे भागआखं का पाराजब उतरा पानी, लगे आग,रोज ढोया आ रहा है माल-असबाबबन रहे हैं गहने-जेवरपकता है कलिया-कबाब।”झटके से सिर-आंख पर फ़िर लिये घड़ेचली ठनकाती कड़े।बाग में आयी बहारचम्पे की लम्बी कतारदेखती बढ़्ती गयीफ़ूल पर अड़ती गयी।मौलसिरी की छांह मेंकुछ देर बैठ बेन्च परफ़िर निगाह डाली एक रेन्ज परदेखा फ़िर कुछ उड़ रही थी तितलियांडालों पर, कितनी चहकती थीं चिड़ियां।भौरें गूंजते, हुए मतवाले-सेउड़ गया इक मकड़ी के फ़ंसकर बड़े-से जाले से।फ़िर निगाह उठायी आसमान की ओरदेखती रही कि कितनी दूर तक छोरदेखा, उठ रही थी धूप-पड़ती फ़ुनगियों पर, चमचमाया रूप।पेड़ जैसे शाह इक-से-इक बड़ेताज पहने, है खड़े।आया माली, हाथ गुलदस्ते लियेगुलबहार को दिये।गोली को इक गुलदस्तासूंघकर हंसकर बहार ने दिया।जरा बैठकर उठी, तिरछी गलीहोती कुन्ज को चली!देखी फ़ारांसीसी लिलीऔर गुलबकावली।फ़िर गुलाबजामुन का बाग छोड़ातूतो के पेड़ो से बायें मुंह मोड़ा।एक बगल की झाड़ीबढ़ी जिधर थी बड़ी गुलाबबाड़ी।देखा, खिल रहे थे बड़े-बड़े फ़ूललहराया जी का सागर अकूल।दुम हिलाता भागा टेरियर कुत्ताजैसे दौड़ी गोली चिल्लाती हुई ‘कुकुरमुत्ता’।सकपकायी, बहार देखने लगीजैसे कुकुरमुत्ते के प्रेम से भरी गोली दगी।भूल गयी, उसका था गुलाब पर जो कुछ भी प्यारसिर्फ़ वह गोली को देखती रही निगाह की धार।टूटी गोली जैसे बिल्ली देखकर अपना शिकारतोड़कर कुकुरमुत्तों को होती थी उनके निसार।बहुत उगे थे तब तकउसने कुल अपने आंचल मेंतोड़कर रखे अब तक।घूमी प्यार सेमुसकराती देखकर बोली बहार से-“देखो जी भरकर गुलाबहम खायंगे कुकुरमुत्ते का कबाब।”कुकुरमुत्ते की कहानीसुनी उससे जीभ में बहार की आया पानी।पूछा “क्या इसका कबाबहोगा ऎसा भी लजीज?जितनी भाजियां दुनिया मेंइसके सामने नाचीज?”गोली बोली-”जैसी खुशबूइसका वैसा ही स्वाद,खाते खाते हर एक कोआ जाती है बिहिश्त की यादसच समझ लो, इसका कलियातेल का भूना कबाब,भाजियों में वैसाजैसा आदमियों मे नव्वाब”
यहीं से “नहीं ऎसा कहते री मालिन कीछोकड़ी बंगालिन की!”डांटा नौकरानी ने-चढ़ी-आंख कानी ने।लेकिन यह , कुछ एक घूंट लार केजा चुके थे पेट में तब तक बहार के।“नहीं नही, अगर इसको कुछ कहा”पलटकर बहार ने उसे डांटा-“कुकुरमुत्ते का कबाब खाना है,इसके साथ यहां जाना है।”“बता, गोली” पूछा उसने,“कुकुरमुत्ते का कबाबवैसी खुशबु देता हैजैसी कि देता है गुलाब!”गोली ने बनाया मुंहबाये घूमकर फ़िर एक छोटी-सी निकाली “उंह!”कहा,”बकरा हो या दुम्बामुर्ग या कोई परिन्दाइसके सामने सब हुआछू:सबसे बढ़कर इसकी खुशबु।भरता है गुलाब पानीइसके आगे मरती है इन सबकी नानी।”चाव से गोली चलीबहार उसके पीछे हो ली,उसके पीछे टेरियर, फ़िर नौकरानीपोंछती जो आंख कानी।चली गोली आगे जैसे डिक्टेटरबहार उसके पीछे जैसे भुक्खड़ फ़ालोवर।उसके पीछे दुम हिलाता टेरियर-आधुनिक पोयेट (Poet)पीछे बांदी बचत की सोचतीकेपीटलिस्ट क्वेट।झोपड़ी में जल्दी चलकर गोली आयीजोर से ‘मां’ चिल्लायी।मां ने दरवाजा खोला,आंखो से सबको तोला।भीतर आ डलिये मे रक्खेमोली ने वे कुकुरमुत्ते।देखकर मां खिल गयी।निधि जैसे मिल गयी।कहा गोली ने, “अम्मा,कलिया-कबाब जल्द बना।पकाना मसालेदारअच्छा, खायेंगी बहार।पतली-पतली चपातियांउनके लिए सेख लेना।”जला ज्यों ही उधर चूल्हा,खेलने लगीं दोनों दुल्हन-दूल्हा।कोठरी में अलग चलकरबांदी की कानी को छलकर।टेरियर था बरातीआज का गोली का साथ।हो गयी शादी कि फ़िर दूल्हन-बहार से।दूल्हा-गोली बातें करने लगी प्यार से।इस तरह कुछ वक्त बीता, खाना तैयारहो गया, खाने चलीं गोली और बहार।कैसे कहें भाव जो मां की आंखो से बरसेथाली लगायी बड़े समादर से।खाते ही बहार ने यह फ़रमाया,“ऎसा खाना आज तक नही खाया”शौक से लेकर सवादखाती रहीं दोनोकुकुरमुत्ते का कलिया-कबाब।बांदी को भी थोड़ा-सागोली की मां ने कबाब परोसा।अच्छा लगा, थोड़ा-सा कलिया भीबाद को ला दिया,हाथ धुलाकर देकर पान उसको बिदा किया।
जैसे अम्मा कुकुरमुत्ते की कहानीसुनी जब बहार से बुआ ।नव्वाब के मुंह आया पानी।बांदी से की पूछताछ,उनको हो गया विश्वास।माली को बुला भेजा,कहा,”कुकुरमुत्ता चलकर ले आ तू ताजा-ताजा।”माली ने कहा,”हुजूर,कुकुरमुत्ता अब नहीं रहा है, अर्ज हो मन्जूर,रहे है अब सिर्फ़ गुलाब।”गुस्सा आया, कांपने लगे नव्वाब।बोले;”चल, गुलाब जहां थे, उगा,सबके साथ हम भी चाहते है अब कुकुरमुत्ता।”बोला माली,”फ़रमाएं मआफ़ खता,कुकुरमुत्ता अब उगाया नहीं उगता।”</poem>