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"मैं ख़ुद पे एक अजब वार करने वाला था / गोविन्द गुलशन" के अवतरणों में अंतर

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('ग़ज़ल धूप के पेड़ पर कैसे शबनम उगे,बस यही सोच कर सब प...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
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ग़ज़ल
 
ग़ज़ल
  
धूप के पेड़ पर कैसे शबनम उगे,बस यही सोच कर सब परेशान हैं
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मैं ख़ुद पे एक अजब  वार करने वाला था
मेरे आँगन में क्या आज मोती झरे,लोग उलझन में हैं और हैरान हैं
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उनाहगार हूँ इंकार करने वाला था
  
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बचा लिया मुझे मेरे ज़मीर ने वर्ना
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मैं अपनी मौत का दीदार करने वाला था
  
तुमसे नज़रें मिलीं,दिल तुम्हारा हुआ,धड़कनें छिन गईं तुम बिछड़ भी गए
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अदीब हूँ मैं मगर भूल ही गया क्या हूँ
आँखें पथरा गईं,जिस्म मिट्टी हुआ,अब तो बुत की तरह हम भी बेजान हैं
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मैं अपने लहजे को तलवार करने वाला था
  
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मेरे तबीब मुझे मौत क्यूँ नहीं आती
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सवाल अजीब ही बीमार करनी वाला था
  
डूब जाओगे तुम,डूब जाउँगा मैं और उबरने न देगी नदी रेत की
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मैं बच-बचा के नज़र फेर कर चला आया
तुम भी वाकि़फ़ नहीं मैं भी हूँ बेख़बर,प्यार की नाव में कितने तूफ़ान हैं
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मुझे वो दिल में गिरिफ़्तार करने वाला था
 
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डूब जाता ये दिल, टूट जाता ये दिल,शुक्र है ऐसा होने से पहले ही खु़द
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दिल को समझा लिया और तसल्ली ये दी अश्क आँखों में कुछ पल के मेहमान हैं
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ज़ख़्म हमको मिले,दर्द हमको मिले और ये रुस्वाइयाँ जो मिलीं सो अलग
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बोझ दिल पर ज़्यादा न अब डालिए आपकी और भी कितने एहसान हैं
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23:45, 31 मार्च 2013 का अवतरण

ग़ज़ल

मैं ख़ुद पे एक अजब वार करने वाला था उनाहगार हूँ इंकार करने वाला था

बचा लिया मुझे मेरे ज़मीर ने वर्ना मैं अपनी मौत का दीदार करने वाला था

अदीब हूँ मैं मगर भूल ही गया क्या हूँ मैं अपने लहजे को तलवार करने वाला था

मेरे तबीब मुझे मौत क्यूँ नहीं आती सवाल अजीब ही बीमार करनी वाला था

मैं बच-बचा के नज़र फेर कर चला आया मुझे वो दिल में गिरिफ़्तार करने वाला था