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"धूप के पेड़ पर कैसे शबनम उगे बस यही सोच कर सब परेशान हैं/गोविन्द गुलशन" के अवतरणों में अंतर

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23:49, 31 मार्च 2013 का अवतरण

ग़ज़ल

ग़ज़ल

धूप के पेड़ पर कैसे शबनम उगे,बस यही सोच कर सब परेशान हैं मेरे आँगन में क्या आज मोती झरे,लोग उलझन में हैं और हैरान हैं


तुमसे नज़रें मिलीं,दिल तुम्हारा हुआ,धड़कनें छिन गईं तुम बिछड़ भी गए आँखें पथरा गईं,जिस्म मिट्टी हुआ अब तो बुत की तरह हम भी बेजान हैं


डूब जाओगे तुम,डूब जाउँगा मैं और उबरने न देगी नदी रेत की तुम भी वाकि़फ़ नहीं मैं भी हूँ बेख़बर,प्यार की नाव में कितने तूफ़ान हैं


डूब जाता ये दिल, टूट जाता ये दिल,शुक्र है ऐसा होने से पहले ही खु़द दिल को समझा लिया और तसल्ली ये दी अश्क आँखों में कुछ पल के मेहमान हैं


ज़ख़्म हमको मिले,दर्द हमको मिले और ये रुस्वाइयाँ जो मिलीं सो अलग बोझ दिल पर ज़्यादा न अब डालिए आपकी और भी कितने एहसान हैं