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अपाहिज व्यथा / दुष्यंत कुमार

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अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,<br>तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।<br><br>हूँ।
ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,<br>इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।<br><br>हूँ।
अँधेरे में कुछ ज़िंदगी होम कर दी,<br>उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।<br><br>हूँ।
वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं,<br>जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।<br><br>
तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,<br>तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।<br><br>हूँ।
मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,<br>तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।<br><br>
समालोचको की दुआ है कि मैं फिर,<br>सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।<br><br>हूँ।
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