भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साँचा:KKPoemOfTheWeek

639 bytes added, 07:54, 4 अप्रैल 2013
<div style="font-size:120%; color:#a00000">
उनये उनये भादरेस्त्री वेद पढ़ती है
</div>
<div>
रचनाकार: [[नामवर सिंहदिनकर कुमार]]
</div>
<poem>
उनये उनये भादरेस्त्री वेद पढ़ती हैबरखा की जल चादरेंफूल दीप उसे मंच से जलेउतार देता हैकि झरती पुरवैया सी याद रेधर्म का ठेकेदारमन कुयें कहता है—जाएगी वह नरक के कोहरे सा रवि डूबे के बाद रे ।भादरे ।द्वार
उठे बगूले घास मेंयह कैसा वेद हैचढ़ता रंग बतास मेंजिसे पढ़ नहीं सकती स्त्रीहरी हो रही धूपजिस वेद को रचा थानशेस्त्रियों ने भीजो रचती हैमानव समुदाय कोउसके लिए कैसी वर्जना है या साज़िश हैयुग-सी चढ़ती झुके अकास मेंयुग से धर्म की दुकानतिरती हैं परछाइयाँ सीने के भींगे चास में ।चलाने वालों की साज़िश हैघास बनी रहे स्त्री बांदीजाहिल और उपेक्षिताडूबी रहे अंधविश्वासोंव्रत-उपवासों में उतारती रहे पति परमेश्वरकी आरती औरख़ून चूसते रहे सब उसका अरुंधतियों को नहींरोक सकेंगे निश्चलानंदवह वेद भी पढ़ेगीऔर रचेगीनया वेद
</poem>
</div></div>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,720
edits