भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मुजरिमों से भी बुरी मुन्सिफ़ों की हेटी हुई / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला' |अंगारों पर ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

15:57, 5 अप्रैल 2013 के समय का अवतरण

मुजरिमों से भी बुरी मुन्सिफ़ों की हेटी हुई
खुल गई रील रहस्यों की जब लपेटी हुई

वक़्त पड़ने पे किनारा वो कर गया ऐसे
जैसे बिल्ली हो कोई श्वान की चहेटी हुई

किस क़दर होने लगी हैं मिलावटें तौबा
दुश्मनी भी तो मिली दोस्ती में फेंटी हुई

हाँ या ना कहने में बरसों लगा दिए मेडम
ये ज़ुबां आपकी सरकारिया कमेटी हुई

खीज उठी सास-‘लगे अस्पताल में आगी
जाँच में बेटा बताया था और बेटी हुई

शाम ढलते ही बढ़ी होगी और बेचैनी
गिन रही होगी सितारे वो छत पे लेटी हुई

एक से एक नज़ारे हैं देखने लायक़
फैलने भी दे ज़रा ये नज़र समेटी हुई

ऐ ‘अकेला’ कोई ‘सुकरात’ भी नहीं है तू
जाने किस बात पे दुनिया है तुझसे चेंटी हुई