भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उम्मीद कुछ जगा के भरोसे के आदमी / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला' |अंगारों पर ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

16:43, 5 अप्रैल 2013 के समय का अवतरण

उम्मीद कुछ जगा के भरोसे के आदमी
लौटे नहीं हैं जा के भरोसे के आदमी

ग़ैरों के लूटने का कभी दुख नहीं हुआ
चूना गए लगा के भरोसे के आदमी

सबको ख़बर है क़त्ल किया जा रहा हूँ मैं
बैठे हैं मुँह छुपा के भरोसे के आदमी

फुरसत कहाँ कि घाव पे मरहम रखे कोई
निबटे हैं दुख जता के भरोसे के आदमी

बरबादियों को मेरी तमाशा बनाए हैं
ख़ुश हैं मुझे चिढ़ा के भरोसे के आदमी

जो जंग तू कहेगा, बता दूँगा जीत कर
दो-चार दे दे ला के भरोसे के आदमी

दुख झेलने के वक़्त ‘अकेला’ रहेगा तू
सुख में मिलेंगे आ के भरोसे के आदमी