"पश्विम पर एक आक्षेप / विपिनकुमार अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विपिनकुमार अग्रवाल |संग्रह= }} कल यहाँ विस्फ़ोट होगा प...) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 18: | पंक्ति 18: | ||
ठोढ़ी छुपाए, कंधे झुकाए, भीड़ की हर इकाई | ठोढ़ी छुपाए, कंधे झुकाए, भीड़ की हर इकाई | ||
+ | |||
+ | पास आते कलुषित भविष्य की पहचान है । | ||
+ | |||
+ | |||
+ | एक मोटा आदमी अभी से | ||
+ | |||
+ | रेशमी कपड़े पहन अपने को | ||
+ | |||
+ | तिजोरी में बन्द कर बैठ गया है | ||
+ | |||
+ | नोटों की गड्डियाँ शायद बालू का काम दें । | ||
+ | |||
+ | बैंक का क्लर्क उदास फटी-फटी आँखों से | ||
+ | |||
+ | अपने बीबी-बच्चों, मेज़-कुर्सियों और | ||
+ | |||
+ | कोने में रखे नए टेबिल-लैम्प को देखने में मशगूल है | ||
+ | |||
+ | सबको ढके एक किराए का कमरा है | ||
+ | |||
+ | जब अपना मकान बनवाने की कल्पना की थी | ||
+ | |||
+ | सोचा था उसमें तहख़ाना भी होगा । | ||
+ | |||
+ | मिल की गहराइयों में अब भी | ||
+ | |||
+ | चीड़ की बड़ी-बड़ी पेटियाँ इधर से उधर | ||
+ | |||
+ | हटाई जा रही हैं और ढोनेवाला मज़दूर | ||
+ | |||
+ | अपने काम में रोज़ से अधिक संलग्न है । | ||
+ | |||
+ | एक इंसान ने यह सब देखा और आँखें मूंद लीं | ||
+ | |||
+ | शायद वह जानता था कि आज और कल में | ||
+ | |||
+ | एक रात और एक स्थिति का ही अन्तर है | ||
+ | |||
+ | उसने महज सोचा, इतिहास के अन्तिम पृष्ठ पर लिखा भी नहीं-- | ||
+ | |||
+ | इतनी बड़ी संक्रामक जड़ता की उपस्थिति में ही | ||
+ | |||
+ | ऎसी पाशविक और बेशर्म कृति की संभावना पल सकती है । | ||
+ | |||
+ | |||
+ | (रचनाकाल : 1957) |
13:26, 14 अक्टूबर 2007 के समय का अवतरण
कल यहाँ विस्फ़ोट होगा
प्रकृति के अन्तिम रहस्य का
कल परिचय देगा मानव फिर
अपने खोखले कुँवारेपन और बर्बरता का ।
समझ लो यह शहर की अन्तिम सांझ है
फिर भी न जाने क्यों सब चुप और शान्त हैं
ठोढ़ी छुपाए, कंधे झुकाए, भीड़ की हर इकाई
पास आते कलुषित भविष्य की पहचान है ।
एक मोटा आदमी अभी से
रेशमी कपड़े पहन अपने को
तिजोरी में बन्द कर बैठ गया है
नोटों की गड्डियाँ शायद बालू का काम दें ।
बैंक का क्लर्क उदास फटी-फटी आँखों से
अपने बीबी-बच्चों, मेज़-कुर्सियों और
कोने में रखे नए टेबिल-लैम्प को देखने में मशगूल है
सबको ढके एक किराए का कमरा है
जब अपना मकान बनवाने की कल्पना की थी
सोचा था उसमें तहख़ाना भी होगा ।
मिल की गहराइयों में अब भी
चीड़ की बड़ी-बड़ी पेटियाँ इधर से उधर
हटाई जा रही हैं और ढोनेवाला मज़दूर
अपने काम में रोज़ से अधिक संलग्न है ।
एक इंसान ने यह सब देखा और आँखें मूंद लीं
शायद वह जानता था कि आज और कल में
एक रात और एक स्थिति का ही अन्तर है
उसने महज सोचा, इतिहास के अन्तिम पृष्ठ पर लिखा भी नहीं--
इतनी बड़ी संक्रामक जड़ता की उपस्थिति में ही
ऎसी पाशविक और बेशर्म कृति की संभावना पल सकती है ।
(रचनाकाल : 1957)