भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जीने की तमन्ना लिए मर जाऊँ तो क्या हो / गोविन्द गु्लशन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('ग़ज़ल जीने की तमन्ना लिए मर जाऊँ तो क्या हो गहरे कि...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
  
 
जीने की तमन्ना लिए मर जाऊँ तो क्या हो
 
जीने की तमन्ना लिए मर जाऊँ तो क्या हो
 +
 
गहरे किसी दरिया में उतर जाऊँ तो क्या हो
 
गहरे किसी दरिया में उतर जाऊँ तो क्या हो
 +
  
 
आईना है बेकार,ये साबित हो तो कैसे
 
आईना है बेकार,ये साबित हो तो कैसे
 +
 
देखूँ तेरी आँखों में सँवर  जाऊँ तो क्या हो
 
देखूँ तेरी आँखों में सँवर  जाऊँ तो क्या हो
 +
  
 
मंज़िल की तलब दिल में है लेकिन है थकन भी
 
मंज़िल की तलब दिल में है लेकिन है थकन भी
 +
 
ऐसे में कहीं अब जो ठहर  जाऊँ तो क्या हो
 
ऐसे में कहीं अब जो ठहर  जाऊँ तो क्या हो
 +
  
 
इक तू ही नज़र आए है देखूँ में जिधर भी
 
इक तू ही नज़र आए है देखूँ में जिधर भी
 +
 
मैं तेरी तरह तुझमें बिखर  जाऊँ तो क्या हो
 
मैं तेरी तरह तुझमें बिखर  जाऊँ तो क्या हो
 +
  
 
ख्वाहिश है मेरी तू भी नज़र आए परेशाँ
 
ख्वाहिश है मेरी तू भी नज़र आए परेशाँ
 +
 
देखूँ न तुझे यूँ ही गुज़र  जाऊँ तो क्या हो
 
देखूँ न तुझे यूँ ही गुज़र  जाऊँ तो क्या हो
 +
  
 
घर में जिसे जो चाहिए फ़हरिस्त में है सब
 
घर में जिसे जो चाहिए फ़हरिस्त में है सब
 +
 
ख़ाली ही अगर लौट के घर जाऊँ तो क्या हो
 
ख़ाली ही अगर लौट के घर जाऊँ तो क्या हो

18:09, 19 अप्रैल 2013 का अवतरण

ग़ज़ल

जीने की तमन्ना लिए मर जाऊँ तो क्या हो

गहरे किसी दरिया में उतर जाऊँ तो क्या हो


आईना है बेकार,ये साबित हो तो कैसे

देखूँ तेरी आँखों में सँवर जाऊँ तो क्या हो


मंज़िल की तलब दिल में है लेकिन है थकन भी

ऐसे में कहीं अब जो ठहर जाऊँ तो क्या हो


इक तू ही नज़र आए है देखूँ में जिधर भी

मैं तेरी तरह तुझमें बिखर जाऊँ तो क्या हो


ख्वाहिश है मेरी तू भी नज़र आए परेशाँ

देखूँ न तुझे यूँ ही गुज़र जाऊँ तो क्या हो


घर में जिसे जो चाहिए फ़हरिस्त में है सब

ख़ाली ही अगर लौट के घर जाऊँ तो क्या हो