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"पापड़ / नीरज दइया" के अवतरणों में अंतर

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पापड़ और मेरे सपनों में कोई साम्य नहीं है, वह हिंदी की प्रयोगवादी कविता का कवि था जिसके टूटे हुए सपनों और पापड़ में साम्य था। एक घटना में ऐसा ही साम्य मेरे बचपन से जुड़ा है, जहां मैंने पापा शब्द पहले सीखा और बाद में पापड़, किंतु यह याद नहीं कि बचपन में वह कौन-सा दिन था जब पापा और पापड़ के अनुप्रास ने मुझे आनंद दिया। उस दिन एक छोटी-सी बाल कविता का जन्म हुआ था- पापा-पापड़, पापड़-पापा। जैसे वह कविता थी ऐसे ही यह प्रौढ़ावस्था की एक कविता है, इसे मैं अपने कविता-संग्रह में सबसे अंत में रखूंगा। इसे अंत में रखने का भी एक कारण है- पापड़ शब्द के साथ मेरे शहर बीकानेर का नाम जुड़ा है और खाने के अंत में यहां पापड़ अरोगने का रिवाज आज भी इस शहर में जिंदा है। जहां है वहां से लतीफों का जन्म भी हुआ जिसमें से एक यह है कि किसी पेटू आदमी को दावत पर बुलाया गया और जब टोपिये पंदे को आने की हुए तब पापड़ परोसा गया और उस पेटू ने कहा- वाह! आपको कैसे पता है कि मैं भोजन के मध्यांतर में पापड़ पसंद करता हूं। पापड़-प्रसंग में यह भी लिख देता हूं कि अंत और मध्यांतर से भिन्न किसी प्रथा की भांति भोजन से पहले पापड़ मांगने वाले भी है जिनको कोई नमकीन नहीं मिले तो पापड़ को सहारा बना कर दिन का देहांत करते हैं और फिर जिन शब्दों-पदों-वाक्यों को जन्म देते हैं उनको यहां नहीं लिखा जा सकता, मैंने उन को अपनी निजी धरोहर मानकर किसी बुरे समय के लिए सहेज कर रखा छोड़ा है। इस कविता के अंत से पहले एक छोटी-सी कहानी यह भी है कि जब मेरे मामा ने मामी पसंद की तब उनसे पहली मुलाकात में पापड़ सेकने का प्रयोग करवाया था, और काफी जल कर कहीं-कहीं से काले हो गए उस पापड़ के स्वाद को तो मैं भूल गया लेकिन वह चित्र अब भी कहीं स्मृति में है। पापड़ पर यह एक कविता है पर इसमें अन्य कविताओं की भांति कुछ बातों को व्यवस्थित करने और कविता के रूप में लिखने से बचते हुए भी कविता के रूप में यह पापड़ उठाए मैं यहां तक पहुंच तो गया हूं मगर नहीं जानता कि आप मेरे इस पापड़ के टूटने के इंतजार में यहां तक पहुंचे हैं या पापड़ खाने की इच्छा ने यहां आ कर जन्म ले लिया है।
 
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03:24, 15 मई 2013 के समय का अवतरण

 
पापड़ और मेरे सपनों में कोई साम्य नहीं है, वह हिंदी की प्रयोगवादी कविता का कवि था जिसके टूटे हुए सपनों और पापड़ में साम्य था। एक घटना में ऐसा ही साम्य मेरे बचपन से जुड़ा है, जहां मैंने पापा शब्द पहले सीखा और बाद में पापड़, किंतु यह याद नहीं कि बचपन में वह कौन-सा दिन था जब पापा और पापड़ के अनुप्रास ने मुझे आनंद दिया। उस दिन एक छोटी-सी बाल कविता का जन्म हुआ था- पापा-पापड़, पापड़-पापा। जैसे वह कविता थी ऐसे ही यह प्रौढ़ावस्था की एक कविता है, इसे मैं अपने कविता-संग्रह में सबसे अंत में रखूंगा। इसे अंत में रखने का भी एक कारण है- पापड़ शब्द के साथ मेरे शहर बीकानेर का नाम जुड़ा है और खाने के अंत में यहां पापड़ अरोगने का रिवाज आज भी इस शहर में जिंदा है। जहां है वहां से लतीफों का जन्म भी हुआ जिसमें से एक यह है कि किसी पेटू आदमी को दावत पर बुलाया गया और जब टोपिये पंदे को आने की हुए तब पापड़ परोसा गया और उस पेटू ने कहा- वाह! आपको कैसे पता है कि मैं भोजन के मध्यांतर में पापड़ पसंद करता हूं। पापड़-प्रसंग में यह भी लिख देता हूं कि अंत और मध्यांतर से भिन्न किसी प्रथा की भांति भोजन से पहले पापड़ मांगने वाले भी है जिनको कोई नमकीन नहीं मिले तो पापड़ को सहारा बना कर दिन का देहांत करते हैं और फिर जिन शब्दों-पदों-वाक्यों को जन्म देते हैं उनको यहां नहीं लिखा जा सकता, मैंने उन को अपनी निजी धरोहर मानकर किसी बुरे समय के लिए सहेज कर रखा छोड़ा है। इस कविता के अंत से पहले एक छोटी-सी कहानी यह भी है कि जब मेरे मामा ने मामी पसंद की तब उनसे पहली मुलाकात में पापड़ सेकने का प्रयोग करवाया था, और काफी जल कर कहीं-कहीं से काले हो गए उस पापड़ के स्वाद को तो मैं भूल गया लेकिन वह चित्र अब भी कहीं स्मृति में है। पापड़ पर यह एक कविता है पर इसमें अन्य कविताओं की भांति कुछ बातों को व्यवस्थित करने और कविता के रूप में लिखने से बचते हुए भी कविता के रूप में यह पापड़ उठाए मैं यहां तक पहुंच तो गया हूं मगर नहीं जानता कि आप मेरे इस पापड़ के टूटने के इंतजार में यहां तक पहुंचे हैं या पापड़ खाने की इच्छा ने यहां आ कर जन्म ले लिया है।