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"देवता, स्वीकारो ना स्वीकारो! / प्रतिभा सक्सेना" के अवतरणों में अंतर

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आज बाजी लगा दी भक्ति ने ही,  
 
आज बाजी लगा दी भक्ति ने ही,  
 
मुक्ति मे नहीं ये कामना फलेगी,  
 
मुक्ति मे नहीं ये कामना फलेगी,  
सोचना क्या, तुम हारो, ना हारो!
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सोचना क्या, तुम हारो, ना हारो!
 
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26. शपथ है तुम्हें इस विरागी हृदय की
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अधूरी तपस्या तुम्हें माँगती है!
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न जीवन रहेगा, न आँसू बचेंगे,
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न पिर-फिर यही राग चलते रहेंगे,
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न मिट्टी इसी रूप में रह सकेगी,
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सदा ही न ये प्राण बहले रहेंगे!
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मिटी आश, चिन्ता न इसकी मुझे,
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पर न मिट पा सकेंगी अभी साधनाये,
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ढलेगा दिवस और रजनी ढलेगी,
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चलेंगी अभी मौन आराधनाये!
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स्वयं ही तुम्हें पास आना पड़ेगा
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कि ये जल रही प्राण सी आरती है!
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अभी वेदना श्वास को बाँधती,
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पर रहेगा सदा ही न अस्तित्व मेरा,
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जनम-मौत खींचे लिये चल रहेंहैं,
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मिलोगा कहीं तो मुझे ठौर मेरा!
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अरे, पत्थरों से भले तुम रहो,
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पर कभी आवरण यह हटाना पड़ेगा,
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कभी मृत्तिका में खिलेंगे सुमन वह,
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कि जिनको तुम्हें सिर चढ़ाना पड़ेगा!
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अरे देवता, तुम न पत्थर रहोगे
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कि जब तक यहां भावना जागती है!
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00:01, 22 मई 2013 के समय का अवतरण

 
देवता, स्वीकारो ना स्वीकारो!
ये तो तान मेरी गान तो तुम्हारे .
सौंप जाऊँ तुम्हें साँझ या सकारे,
जी रहे हैं अनुरक्ति के सहारे,
मेरे प्राण मे तुम्हारे राग सोये,
आई द्वारे, पुकारो ना पुकारो!

रह जाय चाहे जानी-अनजानी
मेरी साँस जो कहेगी वो कहानी
एक बात जो कभी न हो पुरानी,
अश्रु वेदना को घोल के लिखेंगे,
आँख खोल के निहारो, ना निहारो!

प्रात जाये,साँझ गाये रंग घोले,
मेरे प्राण मे विहंग एक बोले,
दूर हेरते सितारे नैन खोले,
ये तो भेंट में चढी हूँ मै स्वयं ही,
सिंगार तुम सँवारो, ना सँवारो!

देर नहीं, दूर नहीं बेला,
लौट आया द्वार पाहुना अकेला,
उठ रहा उलझनों का एक मेला,
आँख मे अब नहीं रहे किनारे,
सामने उबारो, ना उबारो!

एक बेडी पहनाई शक्ति ने ही
अंत होगा एक अनुरक्ति मे ही,
आज बाजी लगा दी भक्ति ने ही,
मुक्ति मे नहीं ये कामना फलेगी,
सोचना क्या, तुम हारो, ना हारो!