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+ | तुम्हारे पेट पर है उनके बूटों के रगड़े जाने से बने दाग़ | ||
+ | तुम्हारी यादों में है एक जमा हुआ ख़ौफ़ | ||
+ | तुम्हारे दिल में है एक धधकता हुआ गुस्सा | ||
+ | आततायियों का इन्तज़ार करो | ||
+ | तुम्हें मालूम है, | ||
+ | एक दिन वे मारे जाएँगे । | ||
+ | तुम्हारे हाथों । | ||
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− | + | मरना-मारना दोनों बुरा है | |
− | + | न अत्याचार करो, न अत्याचार सहो | |
− | + | लेकिन जितना पुराना यह सबक है | |
− | + | उतनी ही पुरानी यह सच्चाई | |
− | + | कि अत्याचार भी बचा हुआ है, आततायी भी बचे हुए हैं | |
+ | कि यह दुनिया डरती रहती है | ||
+ | मरती रहती है | ||
+ | मरने का शोक भी करती रहती है । | ||
+ | लेकिन जब आततायी मारे जाते हैं, | ||
+ | कोई शोक नहीं करता । | ||
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− | तुम | + | सबसे मुश्किल होता है आततायियों को पहचानना । |
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− | हम से | + | वे सबसे कमज़ोर या नासमझ होते हैं |
− | + | वे छोटे और मामूली लोग होते हैं | |
+ | वे मोहरे जिनका सिर कटा कर बचे रहते हैं भविष्य के बादशाह । | ||
+ | असली आततायी मीठा बोलते हैं | ||
+ | बोलने से पहले तोलते हैं | ||
+ | हाथों में दस्ताने चढ़ाते हैं | ||
+ | खंजर में सोना मढ़ाते हैं | ||
+ | उन पर अँगुलियों के निशान मिटाते हैं | ||
+ | और बिल्कुल उस वक़्त जब तुम उनसे पूरी तरह बेख़बर या आश्वस्त | ||
+ | अपना अगला क़दम रख रहे होते हो, वे तुम्हें मार डालते हैं | ||
+ | तुम जान भी नहीं पाते कि तुम मारे गए हो | ||
+ | यह ख़ुदक़ुशी है, अख़बार चीख़ते हैं | ||
+ | नहीं, यह बीमारी है, सरकार चीखती है। | ||
+ | कोई डॉक्टर नहीं बताता कि यह बीमारी क्या है। | ||
+ | आततायी बस वादा करता है कि वह बीमारी से भी लड़ेगा । | ||
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+ | आततायी से लड़ना आसान नहीं होता | ||
+ | इसके कई ख़तरे होते हैं | ||
+ | पकड़ लिया जाना, पीटा जाना, सताया जाना, मार दिया जाना-- | ||
+ | कुछ भी हो सकता है । | ||
+ | ये छोटे ख़तरे नहीं हैं । | ||
+ | लेकिन असली और सबसे बड़ा ख़तरा एक और होता है । | ||
+ | आततायी से लड़ते-लड़ते | ||
+ | हम भी हो जाते हैं आततायी । | ||
+ | वह मारा जाता है, शहीद हो जाता है | ||
+ | हम मारे जाते हैं और हमें पता भी नहीं चलता । | ||
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+ | आततायी सबसे ज़्यादा किस चीज़ से डरता है ? | ||
+ | इन्साफ़ से। | ||
+ | जब इन्साफ़ संदिग्ध हो जाए तो वह सबसे ज़्यादा ख़ुश होता है । | ||
+ | ताउम्र वह इसी कोशिश में जुटा रहता है | ||
+ | कि इन्साफ़ छुपा रहे । | ||
+ | उसकी सारी इनायतें, सारी रियायतें बस इसीलिए होती हैं | ||
+ | कि इन्साफ़ की तरह पहचानी जाएँ | ||
+ | कि चन्द राहतें पैदा करती रहें इन्साफ़ की उम्मीद | ||
+ | और चलता रहे उसका खेल । | ||
+ | वह जुर्म भी करे तो इन्साफ़ मालूम हो | ||
+ | और | ||
+ | जब उसे मारा जाए तो वह इन्साफ़ नहीं जुर्म लगे । | ||
+ | |||
+ | सात | ||
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+ | मैं क़ातिलों के साथ नहीं खड़ा हो सकता | ||
+ | हर तरह की हत्या को ख़ारिज करती है मेरी कविता | ||
+ | आततायी से मुक़ाबले के लिए आतयायी हो जाना मुझे मंज़ूर नहीं | ||
+ | लेकिन कोशिश भी करूँ तो आततायी के मारे जाने पर | ||
+ | कोई अफ़सोस मेरे भीतर नहीं उपजता । | ||
+ | मुझे माफ़ करें । | ||
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12:03, 2 जून 2013 का अवतरण
जब आततायी मारे जाते हैं
रचनाकार: प्रियदर्शन
एक
धूप धम-धम नगाड़ा बजा रही है
बन्दूकें ताने खड़े हैं पेड़
सन्नाटे को सूँघ रही है उमसाई हुई जासूस हवा
नदी यहाँ से वहाँ तक
बारूद की तरह बिछी हुई है
आततायियों से युद्ध के लिए तैयार है जंगल
दो
आततायियों का इन्तज़ार करो
तुम्हें मालूम है, वे आएँगे
तुम्हें मालूम है, वे कहर ढाएँगे
तुम्हारी पीठ पर हैं उनकी चाबुक के ख़ुरदरे निशान
तुम्हारे पेट पर है उनके बूटों के रगड़े जाने से बने दाग़
तुम्हारी यादों में है एक जमा हुआ ख़ौफ़
तुम्हारे दिल में है एक धधकता हुआ गुस्सा
आततायियों का इन्तज़ार करो
तुम्हें मालूम है,
एक दिन वे मारे जाएँगे ।
तुम्हारे हाथों ।
तीन
मरना-मारना दोनों बुरा है
न अत्याचार करो, न अत्याचार सहो
लेकिन जितना पुराना यह सबक है
उतनी ही पुरानी यह सच्चाई
कि अत्याचार भी बचा हुआ है, आततायी भी बचे हुए हैं
कि यह दुनिया डरती रहती है
मरती रहती है
मरने का शोक भी करती रहती है ।
लेकिन जब आततायी मारे जाते हैं,
कोई शोक नहीं करता ।
चार
सबसे मुश्किल होता है आततायियों को पहचानना ।
जो सबसे पहले पहचान लिए जाते हैं,
वे सबसे कमज़ोर या नासमझ होते हैं
वे छोटे और मामूली लोग होते हैं
वे मोहरे जिनका सिर कटा कर बचे रहते हैं भविष्य के बादशाह ।
असली आततायी मीठा बोलते हैं
बोलने से पहले तोलते हैं
हाथों में दस्ताने चढ़ाते हैं
खंजर में सोना मढ़ाते हैं
उन पर अँगुलियों के निशान मिटाते हैं
और बिल्कुल उस वक़्त जब तुम उनसे पूरी तरह बेख़बर या आश्वस्त
अपना अगला क़दम रख रहे होते हो, वे तुम्हें मार डालते हैं
तुम जान भी नहीं पाते कि तुम मारे गए हो
यह ख़ुदक़ुशी है, अख़बार चीख़ते हैं
नहीं, यह बीमारी है, सरकार चीखती है।
कोई डॉक्टर नहीं बताता कि यह बीमारी क्या है।
आततायी बस वादा करता है कि वह बीमारी से भी लड़ेगा ।
पाँच
आततायी से लड़ना आसान नहीं होता
इसके कई ख़तरे होते हैं
पकड़ लिया जाना, पीटा जाना, सताया जाना, मार दिया जाना--
कुछ भी हो सकता है ।
ये छोटे ख़तरे नहीं हैं ।
लेकिन असली और सबसे बड़ा ख़तरा एक और होता है ।
आततायी से लड़ते-लड़ते
हम भी हो जाते हैं आततायी ।
वह मारा जाता है, शहीद हो जाता है
हम मारे जाते हैं और हमें पता भी नहीं चलता ।
छह
आततायी सबसे ज़्यादा किस चीज़ से डरता है ?
इन्साफ़ से।
जब इन्साफ़ संदिग्ध हो जाए तो वह सबसे ज़्यादा ख़ुश होता है ।
ताउम्र वह इसी कोशिश में जुटा रहता है
कि इन्साफ़ छुपा रहे ।
उसकी सारी इनायतें, सारी रियायतें बस इसीलिए होती हैं
कि इन्साफ़ की तरह पहचानी जाएँ
कि चन्द राहतें पैदा करती रहें इन्साफ़ की उम्मीद
और चलता रहे उसका खेल ।
वह जुर्म भी करे तो इन्साफ़ मालूम हो
और
जब उसे मारा जाए तो वह इन्साफ़ नहीं जुर्म लगे ।
सात
मैं क़ातिलों के साथ नहीं खड़ा हो सकता
हर तरह की हत्या को ख़ारिज करती है मेरी कविता
आततायी से मुक़ाबले के लिए आतयायी हो जाना मुझे मंज़ूर नहीं
लेकिन कोशिश भी करूँ तो आततायी के मारे जाने पर
कोई अफ़सोस मेरे भीतर नहीं उपजता ।
मुझे माफ़ करें ।