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"वैसे तो तुम्हें छोड़ के मय पी ही नहीं है / ‘अना’ क़ासमी" के अवतरणों में अंतर
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17:33, 4 जून 2013 के समय का अवतरण
वैसे तो तुम्हें छोड़ के मय पी ही नहीं है
पी लूं कभी धोखे से तो चढ़ती ही नहीं है
अब हाले-दिले-ज़ार सुनाता हूं रूको तो
तुमको तो ज़रा देर तसल्ली ही नहीं है
बेकार में तुम अपनी सफाई में जुटे हो
हमने तो कोई बात अभी की ही नहीं है
चिल्ला न हलक़ फाड़ के सुनता है यहां कौन
जनता तो ये बहरी भी है गूंगी ही नहीं है
अब तेरा कहा मान लिया मौलवी साहब
पर बात हलक़ से तो उतरती ही नहीं है
हैं इसके सिवा और भी कुछ रंग ग़ज़ल के
तुम जैसा समझते हो ये वैसी ही नहीं है
हैं और भी दुनिया में ‘अना’ जैसे सुख़नवर<ref>गज़ल कार</ref>
अब शहरे-सुख़न आपका दिल्ली ही नहीं है
शब्दार्थ
<references/>