भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"परिताप / कविता वाचक्नवी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) |
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
}} | }} | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
− | <poem> | + | <poem>ढूँढता है ठौर |
− | + | ||
− | ढूँढता है ठौर | + | |
यह दोने धरा | यह दोने धरा | ||
दीपक कँपीला , | दीपक कँपीला , | ||
पंक्ति 19: | पंक्ति 17: | ||
जाए कहाँ ? | जाए कहाँ ? | ||
बस डूबना तय है... सुनिश्चित । | बस डूबना तय है... सुनिश्चित । | ||
− | |||
इस किनारे पर | इस किनारे पर | ||
पंक्ति 46: | पंक्ति 43: | ||
वेदना में | वेदना में | ||
जल भरेगा । | जल भरेगा । | ||
− | |||
जल मिटो | जल मिटो |
23:05, 10 जून 2013 के समय का अवतरण
ढूँढता है ठौर
यह दोने धरा
दीपक कँपीला ,
ठेलते दोनों किनारे के
थपेड़े।
(ठिठक कर)
छल-छद्म-तर्पण के बहाने
ला बहाना धार में
अच्छा चलन है ।
क्या करे ?
जाए कहाँ ?
बस डूबना तय है... सुनिश्चित ।
इस किनारे पर
खड़ी है भीड़ सब ,
जो उसे ढरका, सिरा, लहरों-लहर
लौट जाती है
उन्हीं रंगीनियों में,
उस किनारे पर
मचलती आँधियाँ, तूफान,
बरखा के बवण्डर,
बीच का विस्तार
नदिया का
भँवर का
लीलने को, निगलने को
आज बाँहें खोल पसरा।
जल, तनिक तू और जल
दीपक ! न डर जल से,
सोख लेगा
यह भयंकर जल
तुम्हारी
जलन के परिताप सारे,
लील लेगा
और जलने की समूची
वेदना में
जल भरेगा ।
जल मिटो
जल में मिटो
बस मिट चलो
दीपक हमारे !
मेट कर माटी करो
त्रय-ताप सारे ।