"मंगलाचरण(वाणी-स्तवन) / प्रतिभा सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) |
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | {KKGlobal}} | + | {{KKGlobal}} |
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना | |रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना | ||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
आँज नव-नव दृष्टियाँ गोचर नयन में, | आँज नव-नव दृष्टियाँ गोचर नयन में, | ||
मंत्र सम स्वर फूँकतीं अंतःकरण में, | मंत्र सम स्वर फूँकतीं अंतःकरण में, | ||
− | देवि,चिर-चैतन्यमयि तुम कौन? | + | देवि, चिर-चैतन्यमयि तुम कौन? |
मैं स्वरा हूँ, ज्ञान हूँ, विज्ञान हूँ मैं, | मैं स्वरा हूँ, ज्ञान हूँ, विज्ञान हूँ मैं, | ||
पंक्ति 25: | पंक्ति 25: | ||
पञ्चभौतिक जीव मेरा शंख है, मैं फूँक भर-भर कर बजाती, | पञ्चभौतिक जीव मेरा शंख है, मैं फूँक भर-भर कर बजाती, | ||
नाद की झंकार हर आवर्त में भर, | नाद की झंकार हर आवर्त में भर, | ||
− | उर- विवर आवृत्तियाँ रच-रच गुँजाती! | + | उर-विवर आवृत्तियाँ रच-रच गुँजाती! |
सतत श्री-सौंदर्य का अभिधान करती, | सतत श्री-सौंदर्य का अभिधान करती, | ||
मुक्ति का रस भोग मैं निष्काम करती | मुक्ति का रस भोग मैं निष्काम करती |
08:58, 15 जून 2013 के समय का अवतरण
आँज नव-नव दृष्टियाँ गोचर नयन में,
मंत्र सम स्वर फूँकतीं अंतःकरण में,
देवि, चिर-चैतन्यमयि तुम कौन?
मैं स्वरा हूँ, ज्ञान हूँ, विज्ञान हूँ मैं,
मैं सकल विद्या कला की केन्द्र भूता,
व्यक्ति में अभिव्यक्ति में, अनुभूति -चिन्तन में सतत हूँ,
नाद हूँ, शब्दात्मिका मैं सभी तत्वों की प्रसूता!
वैखरी से परा-पश्यंती तलक,
मैं ही बसी संज्ञा, क्रिया के धारकों में
भोगकर्त्री हूँ स्वयं, प्रतिरूप बन कर,
भूमिका नव धार आठों कारकों में!
मैं प्रकृष्ट विचार जो प्रत्येक रचना में सँवरता,
मूल हूँ शाखा-प्रशाखा में सतत विस्तार पाती,
धारणा बन शुद्ध, अंतर्जगत में अभिव्यक्त होती,
बाह्य प्रतिकृति सृष्टि है, प्रकृत्यानुरूप स्वरूप धरती!
पञ्चभौतिक जीव मेरा शंख है, मैं फूँक भर-भर कर बजाती,
नाद की झंकार हर आवर्त में भर,
उर-विवर आवृत्तियाँ रच-रच गुँजाती!
सतत श्री-सौंदर्य का अभिधान करती,
मुक्ति का रस भोग मैं निष्काम करती
स्फुरित हो अंतःकरण की शुद्ध चिति में,
कल्पना में सत्य का अवधान धरती!
सप्त रंग विलीन, ऐसी शुभ्रता हूँ,
सप्तस्वर लयलीन अपरा वाक् हूँ मैं,
अवतरित आनन्द बन अंतःकरण में,
पार्थिव तन में विहरती दिव्यता हूँ!
साक्षी मैं और दृष्टा हूँ निरंतर,
ऊर्जस्वित, अनिरुद्ध मैं अव्याकृता हूँ!
काल बेबस निमिष-निमिष निहारता,
मैं स्वयं में संपूर्ण अजरा अक्षरा हूँ!
अप्रतिहत मैं, सहित, द्वंद्वातीत हूँ मैं,
मैं सतत चिन्मयी अपरूपा गिरा हूँ