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|रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना
आँज नव-नव दृष्टियाँ गोचर नयन में,
मंत्र सम स्वर फूँकतीं अंतःकरण में,
देवि,चिर-चैतन्यमयि तुम कौन?
मैं स्वरा हूँ, ज्ञान हूँ, विज्ञान हूँ मैं,
पञ्चभौतिक जीव मेरा शंख है, मैं फूँक भर-भर कर बजाती,
नाद की झंकार हर आवर्त में भर,
उर- विवर आवृत्तियाँ रच-रच गुँजाती!
सतत श्री-सौंदर्य का अभिधान करती,
मुक्ति का रस भोग मैं निष्काम करती
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