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"पानी के बाहर भी / अनूप अशेष" के अवतरणों में अंतर

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:::मोड़ इसमें कई यह
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:::दिन हथकड़ियों के
:::लम्बा सफ़र है।।
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:::बेड़ी में पाँव फँसे।।
 
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सुबह-सुबह भी जैसे
देह डूबी हुई
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काली रात खड़ी,
धानी धान सी
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इस स्वाधीन
जीन सूखी
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समय में
रची
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मुर्दा जात बड़ी।
बासी पान-सी।
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:::पानी के बाहर भी
 
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:::कोई जाल कसे।।
:::एक कोने में छिपा
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छोटों के दिन
:::दुर्दिन का डर है।।
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बड़े-बड़ों के पेटों के,
 
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भीतर धँसी
आलता रंग-सी
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सलाखों
सुए की चोंच-सी
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बाहर आखेटों के।
ऊँचे-नीचे
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:::चीन्ह-चीन्ह कर मारा
दिनों की
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:::उनके घाव हँसे।।
यह मोंच-सी।
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जिनके शासित हम
 
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भूमंडल के पाखी,
:::छाँह के संबंध में भी
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आसमान में उनके
:::धूप-फर है।।
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लटकी
 
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अपनों की बैसाखी।
आँख ओठों बीच
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:::ताक़त की सत्ता में
बैठी सदी-सी,
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:::आदम कहाँ बसे।।
ज़िन्दगी है
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बाल खोले
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नदी-सी।
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:::जीने-मरने को कहीं
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:::रस्ते का घर है।
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00:22, 27 जून 2013 के समय का अवतरण

दिन हथकड़ियों के
बेड़ी में पाँव फँसे।।
सुबह-सुबह भी जैसे
काली रात खड़ी,
इस स्वाधीन
समय में
मुर्दा जात बड़ी।
पानी के बाहर भी
कोई जाल कसे।।
छोटों के दिन
बड़े-बड़ों के पेटों के,
भीतर धँसी
सलाखों
बाहर आखेटों के।
चीन्ह-चीन्ह कर मारा
उनके घाव हँसे।।
जिनके शासित हम
भूमंडल के पाखी,
आसमान में उनके
लटकी
अपनों की बैसाखी।
ताक़त की सत्ता में
आदम कहाँ बसे।।