भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"लबों पे नर्म तबस्सुम / अहमद नदीम क़ासमी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अहमद नदीम काज़मी }} लबों पे नर्म तबस्सुम रचा कि धुल जाए...)
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=अहमद नदीम काज़मी
 
|रचनाकार=अहमद नदीम काज़मी
 +
|संग्रह=
 
}}
 
}}
 +
[[Category:ग़ज़ल]]
  
लबों पे नर्म तबस्सुम रचा कि धुल जाएं<BR>
+
लबों पे नर्म तबस्सुम रचा कि धुल जाएँ<BR>
ख़ुदा करे मेरे आंसू किसी के काम आएं<BR><BR>
+
ख़ुदा करे मेरे आंसू किसी के काम आएँ<BR><BR>
  
 
जो इब्तदा-ए-सफ़र में दिए बुझा बैठे<BR>
 
जो इब्तदा-ए-सफ़र में दिए बुझा बैठे<BR>
वो बदनसीब किसी का सुराग़ क्या पाएं<BR><BR>
+
वो बदनसीब किसी का सुराग़ क्या पाएँ<BR><BR>
  
तलाश-ए-हुस्न कहां ले चली ख़ुदा जाने<BR>
+
तलाश-ए-हुस्न कहाँ ले चली ख़ुदा जाने<BR>
उमंग थी कि फ़क़त जि़न्दगी को अपनाएं<BR><BR>
+
उमंग थी कि फ़क़त जि़न्दगी को अपनाएँ<BR><BR>
  
 
बुला रहे है उफ़क़ पर जो ज़र्द-रू टीले<BR>
 
बुला रहे है उफ़क़ पर जो ज़र्द-रू टीले<BR>
कहो तो हम भी फ़साने के राज़ हो जाएं<BR><BR>
+
कहो तो हम भी फ़साने के राज़ हो जाएँ<BR><BR>
  
 
न कर ख़ुदा के लिए बार-बार जि़क्र-ए-बहिश्त<BR>
 
न कर ख़ुदा के लिए बार-बार जि़क्र-ए-बहिश्त<BR>
हम आस्मां का मुकरर्र फ़रेब क्यों खाएं<BR><BR>
+
हम आस्माँ का मुकरर्र फ़रेब क्यों खाएँ<BR><BR>
  
 
तमाम मयकदा सुनसान मयगुसार उदास<BR>
 
तमाम मयकदा सुनसान मयगुसार उदास<BR>
लबों को खोल कर कुछ सोचती हैं मीनाएं<BR><BR>
+
लबों को खोल कर कुछ सोचती हैं मीनाएँ<BR><BR>

01:04, 26 अक्टूबर 2007 का अवतरण

लबों पे नर्म तबस्सुम रचा कि धुल जाएँ
ख़ुदा करे मेरे आंसू किसी के काम आएँ

जो इब्तदा-ए-सफ़र में दिए बुझा बैठे
वो बदनसीब किसी का सुराग़ क्या पाएँ

तलाश-ए-हुस्न कहाँ ले चली ख़ुदा जाने
उमंग थी कि फ़क़त जि़न्दगी को अपनाएँ

बुला रहे है उफ़क़ पर जो ज़र्द-रू टीले
कहो तो हम भी फ़साने के राज़ हो जाएँ

न कर ख़ुदा के लिए बार-बार जि़क्र-ए-बहिश्त
हम आस्माँ का मुकरर्र फ़रेब क्यों खाएँ

तमाम मयकदा सुनसान मयगुसार उदास
लबों को खोल कर कुछ सोचती हैं मीनाएँ