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"मैं तुम्हें याद भी आया के नहीं / फ़ाज़िल जमीली" के अवतरणों में अंतर
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राह चलते या कहीं बैठ के सुस्ताते हुए | राह चलते या कहीं बैठ के सुस्ताते हुए | ||
आते-जाते हुए, बेवजह कहीं रुकते हुए | आते-जाते हुए, बेवजह कहीं रुकते हुए | ||
− | + | सीढ़ियाँ चढ़ते हुए, ज़ुल्फ़ को सुलझाते हुए | |
− | घर में आए किसी मेहमान की | + | घर में आए किसी मेहमान की तवज्जोह करते |
चाय देते हुए हाथों से प्याली गिरते | चाय देते हुए हाथों से प्याली गिरते | ||
मैं तुम्हें याद भी आया कि नहीं... | मैं तुम्हें याद भी आया कि नहीं... |
19:09, 29 जून 2013 के समय का अवतरण
मैं तुम्हें याद भी आया कि नहीं...
राह चलते या कहीं बैठ के सुस्ताते हुए
आते-जाते हुए, बेवजह कहीं रुकते हुए
सीढ़ियाँ चढ़ते हुए, ज़ुल्फ़ को सुलझाते हुए
घर में आए किसी मेहमान की तवज्जोह करते
चाय देते हुए हाथों से प्याली गिरते
मैं तुम्हें याद भी आया कि नहीं...
घूमते-फिरते हुए, लांग-ड्राइव करते
चूड़ियाँ लेते हुए, ईद की शॉपिंग करते
घर से जाते हुए या शाम को घर आते हुए
बेख़याली में किसी ख़याल में खो जाते हुए
दुनियादारी से बहुत दूर निकल जाते हुए
मैं तुम्हें याद भी आया कि नहीं...
पिछले दो-चार जो दिन गुज़रे हैं
क्या कहूँ कितने कठिन गुज़रे हैं
इन्तज़ार इतना किया है कि सदी हो जैसे
बेबसी अपने मुक़द्दर में लिखी हो जैसे