"रश्मिरथी / पंचम सर्ग / भाग 4" के अवतरणों में अंतर
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+ | ‘‘जन्मा लेकर अभिशाप, हुआ वरदानी, | ||
+ | आया बनकर कंगाल, कहाया दानी। | ||
+ | दे दिये मोल जो भी जीवन ने माँगे, | ||
+ | सिर नहीं झुकाया कभी किसी के आगे। | ||
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+ | ‘‘पर हाय, हुआ ऐसा क्यों वाम विधाता ? | ||
+ | मुझ वीर पुत्र को मिली भीरू क्यों माता ? | ||
+ | जो जमकर पत्थर हुई जाति के भय से, | ||
+ | सम्बन्ध तोड़ भगी दुधमुँहे तनय से। | ||
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+ | ‘‘मर गयी नहीं वह स्वयं, मार सुत को ही, | ||
+ | जीना चाहा बन कठिन, क्रुर, निर्मोही। | ||
+ | क्या कहूँ देवि ! मैं तो ठहरा अनचाहा, | ||
+ | पर तुमने माँ का खूब चरित्र निबाहा। | ||
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+ | ‘‘था कौन लोभ, थे अरमान हृदय में, | ||
+ | देखा तुमने जिनका अवरोध तनय में ? | ||
+ | शायद यह छोटी बात-राजसुख पाओ, | ||
+ | वर किसी भूप को तुम रानी कहलाओ। | ||
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+ | ‘‘सम्मान मिले, यश बढ़े वधूमण्डल में, | ||
+ | कहलाओ साध्वी, सती वाम भूतल में। | ||
+ | पाओ सुत भी बलवान, पवित्र, प्रतापी, | ||
+ | मुझ सा अघजन्मा नहीं, मलिन, परितापी। | ||
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+ | ‘‘सो धन्य हुईं तुम देवि ! सभी कुछ पा कर, | ||
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+ | पर अम्बर पर जिनका प्रदीप जलता है, | ||
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+ | ‘‘उनकी पोथी में भी कुछ लेखा होगा, | ||
+ | कुछ कृत्य उन्होंने भी तो देखा होगा। | ||
+ | धारा पर सद्यःजात पुत्र का बहना, | ||
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+ | ‘‘फिर उसका होना मग्न अनेक सुखों में, | ||
+ | जातक असंग का जलना अमित दुखों में। | ||
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+ | ये सभी दृश्य फिर से सम्मुख आयेंगे। | ||
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+ | ‘‘जग की आँखों से अपना भेद छिपाकर, | ||
+ | नर वृथा तृप्त होता मन को समझाकर- | ||
+ | अब रहा न कोई विवर शेष जीवन में, | ||
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+ | ‘‘पर, हँसते कहीं अदृश्य जगत् के स्वामी, | ||
+ | देखते सभी कुछ तब भी अन्तर्यामी। | ||
+ | सबको सहेज कर नियति कहीं धरती है, | ||
+ | सब-कुछ अदृश्य पट पर अंकित करती है। | ||
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+ | ‘‘यदि इस पट पर का चित्र नहीं उज्जवल हो, | ||
+ | कालिमा लगी हो, उसमें कोई मल हो, | ||
+ | तो रह जाता क्या मूल्य हमारी जय का, | ||
+ | जग में संचित कलुषित समृद्धि-समुदय का ? | ||
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+ | ‘‘पर, हाय, न तुममें भाव धर्म के जागे, | ||
+ | तुम देख नहीं पायीं जीवन के आगे। | ||
+ | देखा न दीन, कातर बेटे के मुख को, | ||
+ | देखा केवल अपने क्षण-भंगुर सुख को। | ||
+ | |||
+ | ‘‘विधि का पहला वरदान मिला जब तुमको, | ||
+ | गोदी में नन्हाँ दान मिला जब तुमको, | ||
+ | क्यो नहीं वीर-माता बन आगें आयीं ? | ||
+ | सबके समक्ष निर्भय होकर चिल्लायीं ? | ||
+ | |||
+ | ‘‘ ‘सुन लो, समाज के प्रमुख धर्म-ध्वज-धारी, | ||
+ | सुतवती हो गयी मैं अनब्याही नारी। | ||
+ | अब चाहो तो रहने दो मुझे भवन में | ||
+ | या जातिच्युत कर मुझे भेज दो वन में। | ||
+ | |||
+ | ‘‘ ‘पर, मैं न प्राण की इस मणि को छोडूँगी, | ||
+ | मातृत्व-धर्म से मुख न कभी मोडूँगी। | ||
+ | यह बड़े दिव्य उन्मुक्त प्रेम का फल है, | ||
+ | जैसा भी हो, बेटा माँ का सम्बल है।’ | ||
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23:10, 7 जुलाई 2013 के समय का अवतरण
‘‘अपना खोया संसार न तुम पाओगी,
राधा माँ का अधिकार न तुम पाओगी।
छीनने स्वत्व उसका तो तुम आयी हो,
पर, कभी बात यह भी मन में लायी हो ?
‘‘उसको सेवा, तुमको सुकीर्ति प्यारी है,
तु ठकुरानी हो, वह केवल नारी है।
तुमने तो तन से मुझे काढ़ कर फेंका,
उसने अनाथ को हृदय लगा कर सेंका।
‘‘उमड़ी न स्नेह की उज्जवल धार हृदय से,
तुम सुख गयीं मुझको पाते ही भय से।
पर, राधा ने जिस दिन मुझको पाया था,
कहते हैं, उसको दूध उतर आया था।
‘‘तुमने जनकर भी नहीं पुत्र कर जाना,
उसने पाकर भी मुझे तनय निज माना।
अब तुम्हीं कहो, कैसे आत्मा को मारूँ ?
माता कह उसके बदलें तुम्हें पुकारूँ ?
‘‘अर्जुन की जननी ! मुझे न कोई दुख है,
ज्यों-त्यों मैने भी ढूँढ लिया निज सुख है।
जब भी पिछे की ओर दृष्टि जाती है,
चिन्तन में भी यह बात नहीं आती है।
‘‘आचरण तुम्हारा उचित या कि अनुचित था,
या असमय मेरा जन्म न शील-विहित था !
पर एक बात है, जिसे सोच कर मन में,
मैं जलता ही आया समग्र जीवन में,
‘‘अज्ञातशीलकुलता का विघ्न न माना,
भुजबल को मैंने सदा भाग्य कर जाना।
बाधाओं के ऊपर चढ़ धूम मचा कर,
पाया सब-कुछ मैंने पौरूष को पाकर।
‘‘जन्मा लेकर अभिशाप, हुआ वरदानी,
आया बनकर कंगाल, कहाया दानी।
दे दिये मोल जो भी जीवन ने माँगे,
सिर नहीं झुकाया कभी किसी के आगे।
‘‘पर हाय, हुआ ऐसा क्यों वाम विधाता ?
मुझ वीर पुत्र को मिली भीरू क्यों माता ?
जो जमकर पत्थर हुई जाति के भय से,
सम्बन्ध तोड़ भगी दुधमुँहे तनय से।
‘‘मर गयी नहीं वह स्वयं, मार सुत को ही,
जीना चाहा बन कठिन, क्रुर, निर्मोही।
क्या कहूँ देवि ! मैं तो ठहरा अनचाहा,
पर तुमने माँ का खूब चरित्र निबाहा।
‘‘था कौन लोभ, थे अरमान हृदय में,
देखा तुमने जिनका अवरोध तनय में ?
शायद यह छोटी बात-राजसुख पाओ,
वर किसी भूप को तुम रानी कहलाओ।
‘‘सम्मान मिले, यश बढ़े वधूमण्डल में,
कहलाओ साध्वी, सती वाम भूतल में।
पाओ सुत भी बलवान, पवित्र, प्रतापी,
मुझ सा अघजन्मा नहीं, मलिन, परितापी।
‘‘सो धन्य हुईं तुम देवि ! सभी कुछ पा कर,
कुछ भी न गँवाया तुमने मुझे गँवा कर।
पर अम्बर पर जिनका प्रदीप जलता है,
जिनके अधीन संसार निखिल चलता है
‘‘उनकी पोथी में भी कुछ लेखा होगा,
कुछ कृत्य उन्होंने भी तो देखा होगा।
धारा पर सद्यःजात पुत्र का बहना,
माँ का हो वज्र-कठोर दृश्य वह सहना।
‘‘फिर उसका होना मग्न अनेक सुखों में,
जातक असंग का जलना अमित दुखों में।
हम दोनों जब मर कर वापस जायेंगे,
ये सभी दृश्य फिर से सम्मुख आयेंगे।
‘‘जग की आँखों से अपना भेद छिपाकर,
नर वृथा तृप्त होता मन को समझाकर-
अब रहा न कोई विवर शेष जीवन में,
हम भली-भाँति रक्षित हैं पटावरण में !
‘‘पर, हँसते कहीं अदृश्य जगत् के स्वामी,
देखते सभी कुछ तब भी अन्तर्यामी।
सबको सहेज कर नियति कहीं धरती है,
सब-कुछ अदृश्य पट पर अंकित करती है।
‘‘यदि इस पट पर का चित्र नहीं उज्जवल हो,
कालिमा लगी हो, उसमें कोई मल हो,
तो रह जाता क्या मूल्य हमारी जय का,
जग में संचित कलुषित समृद्धि-समुदय का ?
‘‘पर, हाय, न तुममें भाव धर्म के जागे,
तुम देख नहीं पायीं जीवन के आगे।
देखा न दीन, कातर बेटे के मुख को,
देखा केवल अपने क्षण-भंगुर सुख को।
‘‘विधि का पहला वरदान मिला जब तुमको,
गोदी में नन्हाँ दान मिला जब तुमको,
क्यो नहीं वीर-माता बन आगें आयीं ?
सबके समक्ष निर्भय होकर चिल्लायीं ?
‘‘ ‘सुन लो, समाज के प्रमुख धर्म-ध्वज-धारी,
सुतवती हो गयी मैं अनब्याही नारी।
अब चाहो तो रहने दो मुझे भवन में
या जातिच्युत कर मुझे भेज दो वन में।
‘‘ ‘पर, मैं न प्राण की इस मणि को छोडूँगी,
मातृत्व-धर्म से मुख न कभी मोडूँगी।
यह बड़े दिव्य उन्मुक्त प्रेम का फल है,
जैसा भी हो, बेटा माँ का सम्बल है।’