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जागते में रात मुझ को ख़्वाब दिखलाया गया
बन के शाख़-ए-गुल मिरी आँखों में लहराया गया
जो मसक जाए ज़रा सी नोक-ए-हर्फ़ से
क्यूँ मुझे ऐसा लिबास-ए-जिस्म पहनाया गया
अपने अपने ख़ौफ़-घर में लोग हैं सहमे हुए
दाएरे से खींच कर नुक़्ते को क्यूँ लाया गया
ये मिरा अपना बदन है या खँडर ख़्वाबों का है
जाने किस के हाथ से ऐसा महल ढाया गया
बढ़ चली थी मौज अपनी हद से लेकिन थम गई
उस ने ये समझा था कि पत्थर को पिघलाया गया
रात इक मीना ने चूमा था लब-ए-साग़र ‘शमीम’
बात बस इतनी थी जिस को ख़ूब फैलाया गया