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|रचनाकार=द्विजेन्द्र 'द्विज'
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[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}<poem>
इसी तरह से ये काँटा निकाल देते हैं
 
हम अपने दर्द को ग़ज़लों में ढाल देते हैं
 
हमारी नींदों में अक्सर जो डालती हैं ख़लल
 
वो ऐसी बातों को दिल से निकाल देते हैं
 
हमारे कल की ख़ुदा जाने शक़्ल क्या होगी
 
हर एक बात को हम कल पे टाल देते हैं
 कहीं दिखे ही नहीं गाँवों में वो पेड़ हमेहमें
बुज़ुर्ग साये की जिनके मिसाल देते हैं
 
कमाल ये है वो गोहरशनास हैं ही नहीं
 
जो इक नज़र में समंदर खंगाल देते है
 
वो सारे हादसे हिम्मत बढ़ा गए ‘द्विज’ की
 कि जिनके साये ही दम—ख़म दम-ख़म पिघाल देते हैं</poem>
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