भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"ख़िरद को गुमशुदा-ए-कू-ब-कू समझते हैं / 'रविश' सिद्दीक़ी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रविश' सिद्दीक़ी }} {{KKCatGhazal}} <poem> ख़िरद क...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
|||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKGlobal}} | {{KKGlobal}} | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
− | |रचनाकार=रविश' सिद्दीक़ी | + | |रचनाकार='रविश' सिद्दीक़ी |
}} | }} | ||
{{KKCatGhazal}} | {{KKCatGhazal}} |
21:47, 16 अगस्त 2013 के समय का अवतरण
ख़िरद को गुमशुदा-ए-कू-ब-कू समझते हैं
हम अहल-ए-इश्क़ तुझे रू-ब-रू समझते हैं
तिरे ख़याल की ख़ुशबू तिरे जमाल का रंग
हर इक को तक्मिला-ए-रंग-ओ-बू समझते हैं
कोई मक़ाम कोई मरहला नज़र में नहीं
कहाँ है क़ाफ़िला-ए-आरज़ू समझते हैं
बुतान-ए-शहर को ये ऐतराफ़ हो कि न हो
ज़बान-ए-इश्क़ की सब गुफ़्तुगू समझते हैं
हज़ार फ़ितना दर आग़ोश है सुकूँ तेरा
तुझे हम ऐ दिल-ए-आशुफ़्ता-ख़ू समझते हैं
हज़ार मंज़िल-ए-नौ यक फ़राग़-ए-गुमशुदगी
मआल-ए-हौसला-ए-जुस्तुजू समझते हैं
फ़क़ीह-ए-शहर से क्या पूछिए ‘रविश’ कि जनाब
ज़बान-ए-शीशा-ओ-जाम-ओ-सुबू समझते हैं