"उज्र् आने में भी है और बुलाते भी नहीं / दाग़ देहलवी" के अवतरणों में अंतर
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− | ज़ीस्त से तंग हो ऐ | + | ज़ीस्त से तंग हो ऐ दाग़ तो जीते क्यूँ हो<br> |
− | जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं | + | जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं |
05:44, 19 फ़रवरी 2008 का अवतरण
उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाइसे तर्के मुलाक़ात बताते भी नहीं
मुंतज़िर हैं दमे रुख़सत के ये मर जाए तो जाएँ
फिर ये एहसान के हम छोड़ के जाते भी नहीं
सर उठाओ तो सही, आँख मिलाओ तो सही
नश्शाए मैं भी नहीं, नींद के माते भी नहीं
क्या कहा फिर तो कहो; हम नहीं सुनते तेरी
नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नहीं
ख़ूब परदा है के चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं
मुझसे लाग़िर तेरी आँखों में खटकते तो रहे
तुझसे नाज़ुक मेरी आँखों में समाते भी नहीं
देखते ही मुझे महफ़िल में ये इरशाद हुआ
कौन बैठा है इसे लोग उठाते भी नहीं
हो चुका तर्के तअल्लुक़ तो जफ़ाएँ क्यूँ हों
जिनको मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं
ज़ीस्त से तंग हो ऐ दाग़ तो जीते क्यूँ हो
जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं