भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खांसी / कुमार सुरेश

21 bytes removed, 08:40, 29 अगस्त 2013
/* खांसी */
और दिलाती है याद
हमारा साम्राज्य चाहे जितना बड्ा हो
शरीर उससे बाहर ही है </poem>
इसकी अप्रिय कर्कश ध्वनि
प्रियजनों को भी करती है आशंकित यह घोषणा हैशरीर के हमारे नियंृण के से बाहर शरीर के अपनी तरह से स्वतंृ और परतंृ दोनों और स्वतंृ दोनो होने की
खांसी को का होना हमेशा उदास कर देता है अगर सुर सुन सको तो खांसी यह सबसे बडंा बड्ा धार्मिक प्रवचन है ं=
103
edits