भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"खिड़की / पूर्णिमा वर्मन" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(New page: बहुत दिनों बाद खिड़की खोली थी साफ-साफ दिखता काँच के उस पार लगता था नयी ध...) |
|||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=पूर्णिमा वर्मन | ||
+ | }} | ||
+ | |||
बहुत दिनों बाद | बहुत दिनों बाद | ||
19:10, 3 नवम्बर 2007 का अवतरण
बहुत दिनों बाद
खिड़की खोली थी
साफ-साफ दिखता काँच के उस पार
लगता था नयी धूप आएगी
फूल खिल जाएँगे
नई पत्तियाँ उगेंगी
वसंत फिर आएगा धीरे-धीरे
एक काँच खिसकाते ही
मिला शीतल झोंका
धीरे-धीरे क्यारी में फूल खिलने लगे
कि जैसे वसंत समाया था हर कण में
अचानक गहराया नभ
एक तेज़ झोंका आया
रेत ही रेत
बिखर गई फूलों पर - आँखों में
छितरायी पंखुड़ियाँ पत्तियाँ
छलछलायी आँखें
हम अक्सर भूल जाते हैं
मौसम बदला करते हैं
तो क्या मुझे
खिड़की खोलनी ही नहीं थी?
या सिखा गई मुझको
जीवन का एक अध्याय।