भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"नीला संसार / सविता सिंह" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सविता सिंह |संग्रह=नींद थी और रात थी }} अभी थोड़ा अंधेरा...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
01:01, 5 नवम्बर 2007 का अवतरण
अभी थोड़ा अंधेरा है
भाषा में भी सन्नाटा है अभी
अभी बिखरे पड़े हैं रेशम के सारे धागे
सपनों के नीले संसार में ऎंठे
अभी कुछ भी व्यवस्थित नहीं
कविता भी नहीं
मैं चल रही हूँ लेकिन इसी अंधेरे में
जागी चुपचाप समझती
कि जो नीले रेशमी डोरे तैर रहे हैं
और जो भाषा सन्न है मेरी ही चुप से
वह सब कुछ मेरा ही है
एक परखनली मेरे अंधकार की
एक गहरी नीली खाई मेरे होने की
अभी थोड़ा अंधेरा है
और मैं चल रही हूँ लिए नींद बग़ल में