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− | {{KKGlobal}}
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| {{KKRachna | | {{KKRachna |
| |रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" | | |रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" |
− | }} | + | }} |
| | | |
− | '''प्रेयसी'''<br>
| + | {{KKPustak |
| + | |चित्र= |
| + | |नाम=परिमल |
| + | |रचनाकार=[[सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"]] |
| + | |प्रकाशक= |
| + | |वर्ष= |
| + | |भाषा=हिन्दी |
| + | |विषय=कविताएँ |
| + | |शैली= |
| + | |पृष्ठ= |
| + | |ISBN= |
| + | |विविध= |
| + | }} |
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− | घेर अंग-अंग को<br>
| + | *[[प्रेयसी / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"]] |
− | लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की, <br>
| + | *[[मित्र के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"]] |
− | ज्योतिर्मीयिलता-सी हुई मैं तत्काल<br>
| + | |
− | घेर निज तरु-तन।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के, <br>
| + | |
− | प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ।<br>
| + | |
− | दृगों को रँग गयी प्रथम प्रणय-रश्मि-<br>
| + | |
− | चूर्ण हो विच्छुरित<br>
| + | |
− | विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही<br>
| + | |
− | बहु रंग-भाव भर<br>
| + | |
− | शिशिर ज्यों पत्र पर कनक-प्रभात के, <br>
| + | |
− | किरण-सम्पात से।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों<br>
| + | |
− | विचरते मञ्जु-मुख <br>
| + | |
− | गुञ्ज-मृदु अलि-पुञ्ज<br>
| + | |
− | मुखर उर मौन वा स्तुति-गीत में हरे।<br>
| + | |
− | प्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिक-<br>
| + | |
− | भरते अन्तर पुलकराशि से बार-बार<br>
| + | |
− | चक्राकार कलरव-तरंगों के मध्य में<br>
| + | |
− | उठी हुई उर्वशी-सी, <br>
| + | |
− | कम्पित प्रतनु-भार, <br>
| + | |
− | विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टि<br>
| + | |
− | निश्चल अरूप में।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | हुआ रूप-दर्शन<br>
| + | |
− | जब कृतविद्य तुम मिले<br>
| + | |
− | विद्या को दृगों से, <br>
| + | |
− | मिला लावण्य ज्यों मूर्ति को मोहकर,-<br>
| + | |
− | शेफालिका को शुभ हीरक-सुमन-हार,-<br>
| + | |
− | श्रृंगार<br>
| + | |
− | शुचिदृष्टि मूक रस-सृष्टि को।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | याद है, उषःकाल,-<br>
| + | |
− | प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में, <br>
| + | |
− | प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त की<br>
| + | |
− | मञ्जरित लता पर,<br>
| + | |
− | प्रथम विहग-बालिकाओं का मुखर स्वर<br>
| + | |
− | प्रणय-मिलन-गान,<br>
| + | |
− | प्रथम विकच कलि वृन्त पर नग्न-तनु<br>
| + | |
− | प्राथमिक पवन के स्पर्श से काँपती;<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | करती विहार<br>
| + | |
− | उपवन में मैं, छिन्न-हार<br>
| + | |
− | मुक्ता-सी निःसंग,<br>
| + | |
− | बहु रूप-रंग वे देखती, सोचती;<br>
| + | |
− | मिले तुम एकाएक;<br>
| + | |
− | देख मैं रुक गयी:-<br>
| + | |
− | चल पद हुए अचल, <br>
| + | |
− | आप ही अपल दृष्टि, <br>
| + | |
− | फैला समाष्टि में खिंच स्तब्ध मन हुआ।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | दिये नहीं प्राण जो इच्छा से दूसरे को, <br>
| + | |
− | इच्छा से प्राण वे दूसरे के हो गये !<br>
| + | |
− | दूर थी, <br>
| + | |
− | खिंचकर समीप ज्यों मैं हुई।<br>
| + | |
− | अपनी ही दृष्टि में;<br>
| + | |
− | जो था समीप विश्व, <br>
| + | |
− | दूर दूरतर दिखा।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | मिली ज्योति छबि से तुम्हारी<br>
| + | |
− | ज्योति-छबि मेरी, <br>
| + | |
− | नीलिमा ज्यों शून्य से;<br>
| + | |
− | बँधकर मैं रह गयी;<br>
| + | |
− | डूब गये प्राणों में <br>
| + | |
− | पल्लव-लता-भार<br>
| + | |
− | वन-पुष्प-तरु-हार<br>
| + | |
− | कूजन-मधुर चल विश्व के दृश्य सब,-<br>
| + | |
− | सुन्दर गगन के भी रूप दर्शन सकल-<br>
| + | |
− | सूर्य-हीरकधरा प्रकृति नीलाम्बरा, <br>
| + | |
− | सन्देशवाहक बलाहक विदेश के।<br>
| + | |
− | प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गयी !<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | बँधी हुई तुमसे ही<br>
| + | |
− | देखने लगी मैं फिर-<br>
| + | |
− | फिर प्रथम पृथ्वी को;<br>
| + | |
− | भाव बदला हुआ-<br>
| + | |
− | पहले ही घन-घटा वर्षण बनी हुई;<br>
| + | |
− | कैसा निरञ्जन यह अञ्जन आ लग गया !<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | देखती हुई सहज<br>
| + | |
− | हो गयी मैं जड़ीभूत, <br>
| + | |
− | जगा देहज्ञान, <br>
| + | |
− | फिर याद गेह की हुई;<br>
| + | |
− | लज्जित<br>
| + | |
− | उठे चरण दूसरी ओर को<br>
| + | |
− | विमुख अपने से हुई !<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | चली चुपचाप, <br>
| + | |
− | मूक सन्ताप हृदय में, <br>
| + | |
− | पृथुल प्रणय-भार।<br>
| + | |
− | देखते निमेशहीन नयनों से तुम मुझे<br>
| + | |
− | रखने को चिरकाल बाँधकर दृष्टि से<br>
| + | |
− | अपना ही नारी रूप, अपनाने के लिए,<br>
| + | |
− | मर्त्य में स्वर्गसुख पाने के अर्थ, प्रिय, <br>
| + | |
− | पीने को अमृत अंगों से झरता हुआ।<br>
| + | |
− | कैसी निरलस दृष्टि !<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | सजल शिशिर-धौत पुष्प ज्यों प्रात में<br>
| + | |
− | देखता है एकटक किरण-कुमारी को।–<br>
| + | |
− | पृथ्वी का प्यार, सर्वस्व उपहार देता<br>
| + | |
− | नभ की निरुपमा को, <br>
| + | |
− | पलकों पर रख नयन<br>
| + | |
− | करता प्रणयन, शब्द-<br>
| + | |
− | भावों में विश्रृंखल बहता हुआ भी स्थिर।<br>
| + | |
− | देकर न दिया ध्यान मैंने उस गीत पर <br>
| + | |
− | कुल मान-ग्रन्थि में बँधकर चली गयी;<br>
| + | |
− | जीते संस्कार वे बद्ध संसार के-<br>
| + | |
− | उनकी ही मैं हुई !<br>
| + | |
− | | + | |
− | समझ नहीं सकी, हाय, <br>
| + | |
− | बँधा सत्य अञ्चल से<br>
| + | |
− | खुलकर कहाँ गिरा।<br>
| + | |
− | बीता कुछ काल, <br>
| + | |
− | देह-ज्वाला बढ़ने लगी, <br>
| + | |
− | नन्दन निकुञ्ज की रति को ज्यों मिला मरु, <br>
| + | |
− | उतरकर पर्वत से निर्झरी भूमि पर<br>
| + | |
− | पंकिल हुई, सलिल-देह कलुषित हुआ।<br>
| + | |
− | करुणा को अनिमेष दृष्टि मेरी खुली, <br>
| + | |
− | किन्तु अरुणार्क, प्रिय, झुलसाते ही रहे-<br>
| + | |
− | भर नहीं सके प्राण रूप-विन्दु-दान से।<br>
| + | |
− | तब तुम लघुपद-विहार<br>
| + | |
− | अनिल ज्यों बार-बार<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | वक्ष के सजे तार झंकृत करने लगे<br>
| + | |
− | साँसों से, भावों से, चिन्ता से कर प्रवेश।<br>
| + | |
− | अपने उस गीत पर<br>
| + | |
− | सुखद मनोहर उस तान का माया में, <br>
| + | |
− | लहरों में हृदय की<br>
| + | |
− | भूल-सी मैं गयी<br>
| + | |
− | संसृति के दुःख-घात, <br>
| + | |
− | श्लथ-गात, तुममें ज्यों<br>
| + | |
− | रही मैं बद्ध हो।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | किन्तु हाय, <br>
| + | |
− | रूढ़ि, धर्म के विचार, <br>
| + | |
− | कुल, मान, शील, ज्ञान, <br>
| + | |
− | उच्च प्राचीर ज्यों घेरे जो थे मुझे, <br>
| + | |
− | घेर लेते बार-बार, <br>
| + | |
− | जब मैं संसार में रखती थी पदमात्र, <br>
| + | |
− | छोड़ कल्प-निस्सीम पवन-विहार मुक्त।<br>
| + | |
− | दोनों हम भिन्न-वर्ण,<br>
| + | |
− | भिन्न-जाति, भिन्न-रूप,<br>
| + | |
− | भिन्न-धर्मभाव, पर<br>
| + | |
− | केवल अपनाव से, प्राणों से एक थे।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | किन्तु दिन रात का, <br>
| + | |
− | जल और पृथ्वी का<br>
| + | |
− | भिन्न सौन्दर्य से बन्धन स्वर्गीय है<br>
| + | |
− | समझे यह नहीं लोग <br>
| + | |
− | व्यर्थ अभिमान के !<br>
| + | |
− | अन्धकार था हृदय <br>
| + | |
− | अपने ही भार से झुका हुआ, विपर्यस्त।<br>
| + | |
− | गृह-जन थे कर्म पर।<br>
| + | |
− | मधुर प्रात ज्यों द्वार पर आये तुम, <br>
| + | |
− | नीड़-सुख छोड़कर मुझे मुक्त उड़ने को संग<br>
| + | |
− | किया आह्वान मुझे व्यंग के शब्द में।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | आयी मैं द्वार पर सुन प्रिय कण्ठ-स्वर, <br>
| + | |
− | अश्रुत जो बजता रहा था झंकार भर<br>
| + | |
− | जीवन की वीणा में, <br>
| + | |
− | सुनती थी मैं जिसे।<br>
| + | |
− | पहचाना मैंने, हाथ बढ़ाकर तुमने गहा।<br>
| + | |
− | चल दी मैं मुक्त, साथ।<br>
| + | |
− | एक बार की ऋणी <br>
| + | |
− | उद्धार के लिए, <br>
| + | |
− | शत बार शोध की उर में प्रतिज्ञा की।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | पूर्ण मैं कर चुकी।<br>
| + | |
− | गर्वित, गरीयसी अपने में आज मैं।<br>
| + | |
− | रूप के द्वार पर<br>
| + | |
− | मोह की माधुरी<br>
| + | |
− | कितने ही बार पी मूर्च्छित हुए हो, प्रिय, <br>
| + | |
− | जागती मैं रही, <br>
| + | |
− | गह बाँह, बाँह में भरकर सँभाला तुम्हें।<br>
| + | |
− | | + | |
− | '''मित्र के प्रति'''<br>
| + | |
− | | + | |
− | (1)
| + | |
− | | + | |
− | कहते हो, ‘‘नीरस यह<br>
| + | |
− | बन्द करो गान-<br>
| + | |
− | कहाँ छन्द, कहाँ भाव,<br>
| + | |
− | कहाँ यहाँ प्राण ?<br>
| + | |
− | था सर प्राचीन सरस, <br>
| + | |
− | सारस-हँसों से हँस;<br>
| + | |
− | वारिज-वारिज में बस<br>
| + | |
− | रहा विवश प्यार;<br>
| + | |
− | जल-तरंग ध्वनि; कलकल<br>
| + | |
− | बजा तट-मृदंग सदल;<br>
| + | |
− | पैंगें भर पवन कुशल<br>
| + | |
− | गाती मल्लार।’’<br>
| + | |
− | | + | |
− | (2)
| + | |
− | | + | |
− | सत्य, बन्धु सत्य; वहाँ<br>
| + | |
− | नहीं अर्र-बर्र;<br>
| + | |
− | नहीं वहाँ भेक, वहाँ<br>
| + | |
− | नहीं टर्र-टर्र।<br>
| + | |
− | एक यहीं आठ पहर<br>
| + | |
− | बही पवन हहर-हहर, <br>
| + | |
− | तपा तपन, ठहर-ठहर<br>
| + | |
− | सजल कण उड़े;<br>
| + | |
− | गये सूख भरे ताल, <br>
| + | |
− | हुए रूख हरे शाल, <br>
| + | |
− | हाय रे, मयूर-व्याल<br>
| + | |
− | पूँछ से जुड़े !<br>
| + | |
− | | + | |
− | (3)
| + | |
− | | + | |
− | देखा कुछ इसी समय<br>
| + | |
− | दृश्य और-और<br>
| + | |
− | इसी ज्वाल से लहरे<br>
| + | |
− | हरे ठौर-ठौर ?<br>
| + | |
− | नूतन पल्लव-दल, कलि,<br>
| + | |
− | मँडलाते व्याकुल अलि<br>
| + | |
− | तनु-तन पर जाते बलि<br>
| + | |
− | बार-बार हार;<br>
| + | |
− | बही जो सुवास मन्द मधुर भार-भरण-छन्द<br>
| + | |
− | मिली नहीं तुम्हें, बन्द<br>
| + | |
− | रहे, बन्धु, द्वार ?<br>
| + | |
− | | + | |
− | (4)
| + | |
− | | + | |
− | इसी समय झुकी आम्र-<br>
| + | |
− | शाखा फल-भार<br>
| + | |
− | मिली नहीं क्या जब यह<br>
| + | |
− | देखा संसार ?<br>
| + | |
− | उसके भीतर जो स्तव, <br>
| + | |
− | सुना नहीं कोई रव ?<br>
| + | |
− | हाय दैव, दव-ही-दव<br>
| + | |
− | बन्धु को मिला !<br>
| + | |
− | कुहरित भी पञ्चम स्वर,<br>
| + | |
− | रहे बन्द कर्ण-कुहर<br>
| + | |
− | मन पर प्राचीन मुहर, <br>
| + | |
− | हृदय पर शिला !<br>
| + | |
− | | + | |
− | (5)
| + | |
− | | + | |
− | सोचो तो क्या थी वह<br>
| + | |
− | भावना पवित्र, <br>
| + | |
− | बँधा जहाँ भेद भूल<br>
| + | |
− | मित्र से अमित्र।<br>
| + | |
− | तुम्हीं एक रहे मोड़<br>
| + | |
− | मुख, प्रिय, प्रिय मित्र छोड़;<br>
| + | |
− | कहो, कहो, कहाँ होड़<br>
| + | |
− | जहाँ जोड़, प्यार ?<br>
| + | |
− | इसी रूप में रह स्थिर, <br>
| + | |
− | इसी भाव में घिर-घिर, <br>
| + | |
− | करोगे अपार तिमिर-<br>
| + | |
− | सागर को पार ?<br>
| + | |
− | | + | |
− | (6)
| + | |
− | | + | |
− | बही बन्धु, वायु प्रबल<br>
| + | |
− | जो, न बँध सकी;<br>
| + | |
− | देखते थके तुम, बहती<br>
| + | |
− | न वह न थकी।<br>
| + | |
− | समझो वह प्रथम वर्ष, <br>
| + | |
− | रुका नहीं मुक्त हर्ष, <br>
| + | |
− | यौवन दुर्धर्ष कर्ष-<br>
| + | |
− | मर्ष से लड़ा;<br>
| + | |
− | ऊपर मध्याह्न तपन<br>
| + | |
− | तपा किया, सन्-सन्-सन्<br>
| + | |
− | हिला-झुका तरु अगणन<br>
| + | |
− | बही वह हवा।<br>
| + | |
− | | + | |
− | (7)
| + | |
− | | + | |
− | उड़ा दी गयी जो, वह भी<br>
| + | |
− | गयी उड़ा, <br>
| + | |
− | जली हुई आग कहो, <br>
| + | |
− | कब गयी जुड़ा ?<br>
| + | |
− | जो थे प्राचीन पत्र<br>
| + | |
− | जीर्ण-शीर्ण नहीं छत्र, <br>
| + | |
− | झड़े हुए यत्र-तत्र<br>
| + | |
− | पड़े हुए थे, <br>
| + | |
− | उन्हीं से अपार प्यार<br>
| + | |
− | बँधा हुआ था असार, <br>
| + | |
− | मिला दुःख निराधार<br>
| + | |
− | तुम्हें इसलिए।<br>
| + | |
− | | + | |
− | (8)
| + | |
− | | + | |
− | बही तोड़ बन्धन<br>
| + | |
− | छन्दों का निरुपाय, <br>
| + | |
− | वही किया की फिर-फिर<br>
| + | |
− | हवा ‘हाय-हाय’।<br>
| + | |
− | कमरे में मध्य याम, <br>
| + | |
− | करते तब तुम विराम, <br>
| + | |
− | रचते अथवा ललाम<br>
| + | |
− | गतालोक लोक, <br>
| + | |
− | वह भ्रम मरुपथ पर की<br>
| + | |
− | यहाँ-वहाँ व्यस्त फिरी, <br>
| + | |
− | जला शोक-चिह्न, दिया<br>
| + | |
− | रँग विटप अशोक।<br>
| + | |
− | | + | |
− | (9)
| + | |
− | | + | |
− | करती विश्राम, कहीं<br>
| + | |
− | नहीं मिला स्थान, <br>
| + | |
− | अन्ध-प्रगति बन्ध किया<br>
| + | |
− | सिन्धु को प्रयाण;<br>
| + | |
− | उठा उच्च ऊर्मि-भंग-<br>
| + | |
− | सहसा शत-शत तरंग, <br>
| + | |
− | क्षुब्ध, लुब्ध, नील-अंग-<br>
| + | |
− | अवगाहन-स्नान, <br>
| + | |
− | किया वहाँ भी दुर्दम<br>
| + | |
− | देख तरी विघ्न विषम, <br>
| + | |
− | उलट दिया अर्थागम<br>
| + | |
− | बनकर तूफान।<br>
| + | |
− | | + | |
− | (10)
| + | |
− | | + | |
− | हुई आज शान्त, प्राप्त<br>
| + | |
− | कर प्रशान्त-वक्ष;<br>
| + | |
− | नहीं त्रास, अतः मित्र, <br>
| + | |
− | नहीं ‘रक्ष, ‘रक्ष’।<br>
| + | |
− | उड़े हुए थे जो कण, <br>
| + | |
− | उतरे पा शुभ वर्षण, <br>
| + | |
− | शुक्ति के हृदय से बन<br>
| + | |
− | मुक्ता झलके;<br>
| + | |
− | लखो, दिया है पहना<br>
| + | |
− | किसन यह हार बना<br>
| + | |
− | भारति-उर में अपना, <br>
| + | |
− | देख दृग थके !<br>
| + | |