भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मुझसे है ये सारी दुनिया मान कर छलता रहा / मानोशी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('मुझसे है ये सारी दुनिया मान कर छलता रहा मैं ज़मीं मे...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
मुझसे है ये सारी दुनिया मान कर छलता रहा
+
<poem>मुझसे है ये सारी दुनिया मान कर छलता रहा
 
मैं ज़मीं में दफ़्न था ऊपर जहां चलता रहा
 
मैं ज़मीं में दफ़्न था ऊपर जहां चलता रहा
  
पंक्ति 12: पंक्ति 12:
  
 
उसको अब मुझसे शिकायत है कि मैं कमज़ोर हूँ
 
उसको अब मुझसे शिकायत है कि मैं कमज़ोर हूँ
’दोस्त’ जिसकी ख़्वाहिशों में उम्र भर ढलता रहा
+
’दोस्त’ जिसकी ख़्वाहिशों में उम्र भर ढलता रहा</poem>

01:00, 29 सितम्बर 2013 का अवतरण

मुझसे है ये सारी दुनिया मान कर छलता रहा
मैं ज़मीं में दफ़्न था ऊपर जहां चलता रहा

बस मुकम्मल होने की उस चाह में ताउम्र यूँ
ख़्वाब इक मासूम सा कई टुकड़ों में पलता रहा

था नहीं कोई धुआँ और आग भी थी बुझ चुकी
बेसबब फिर रात भर मैं आँख क्योँ मलता रहा

दुनिया की रस्मों में कुछ यूँ हो गई मस्रूफ़ियत
अपने मरने का भी मातम कब मना, टलता रहा

उसको अब मुझसे शिकायत है कि मैं कमज़ोर हूँ
’दोस्त’ जिसकी ख़्वाहिशों में उम्र भर ढलता रहा