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"भामती की बेटियाँ / अनामिका" के अवतरणों में अंतर

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क्यों रो रहे हैं जी...<br>
 
क्यों रो रहे हैं जी...<br>
 
चुप-चुप..?
 
चुप-चुप..?
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(10) एक औरत का पहला राजकीय प्रवास
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(9) रिश्ता
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(8) अयाचित
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(7) चौका
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(6) पहली पेंशन
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(5) जुएं
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(4) बेवजह
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(3) मौसियाँ
 +
(2) दरवाज़ा
 +
(1) स्त्रियाँ
 +
 +
पढ़ा गया हमको
 +
जैसे पढ़ा जाता है कागज
 +
बच्चों की फटी कॉपियों का
 +
‘चनाजोरगरम’ के लिफाफे के बनने से पहले !
 +
देखा गया हमको
 +
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
 +
देखी जाती है कलाई घड़ी
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अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !
 +
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सुना गया हमको
 +
यों ही उड़ते मन से
 +
जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने
 +
सस्ते कैसेटों पर
 +
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !
 +
 +
भोगा गया हमको
 +
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
 +
एक दिन हमने कहा–
 +
हम भी इंसा हैं
 +
हमें कायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
 +
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
 +
नौकरी का पहला विज्ञापन।
 +
 +
देखो तो ऐसे
 +
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
 +
बहुत दूर जलती हुई आग।
 +
 +
सुनो, हमें अनहद की तरह
 +
और समझो जैसे समझी जाती है
 +
नई-नई सीखी हुई भाषा।
 +
 +
इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
 +
एक अदृश्य टहनी से
 +
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफवाहें
 +
चींखती हुई चीं-चीं
 +
‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं–
 +
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं
 +
अगरधत्त जंगल लताएं !
 +
खाती-पीती, सुख से ऊबी
 +
और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही
 +
शगल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ।
 +
फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’
 +
(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी)
 +
बाकी कहानी बस कनखी है।
 +
 +
हे परमपिताओं,
 +
परमपुरुषों–
 +
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो !
 +
 +
 +
 +
(2) दरवाज़ा
 +
 +
मैं एक दरवाज़ा थी
 +
मुझे जितना पीटा गया
 +
मैं उतना ही खुलती गई।
 +
अंदर आए आने वाले तो देखा–
 +
चल रहा है एक वृहत्चक्र–
 +
चक्की रुकती है तो चरखा चलता है
 +
चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई
 +
गरज यह कि चलता ही रहता है
 +
अनवरत कुछ-कुछ !
 +
... और अन्त में सब पर चल जाती है झाड़ू
 +
तारे बुहारती हुई
 +
बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर–
 +
सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो
 +
एक टोकरी में जमा करती जाती है
 +
मन की दुछत्ती पर।
 +
 +
(3) मौसियाँ
 +
 +
वे बारिश में धूप की तरह आती हैं–
 +
थोड़े समय के लिए और अचानक
 +
हाथ के बुने स्वेटर, इंद्रधनुष, तिल के लड्डू
 +
और सधोर की साड़ी लेकर
 +
वे आती हैं झूला झुलाने
 +
पहली मितली की ख़बर पाकर
 +
और गर्भ सहलाकर
 +
लेती हैं अन्तरिम रपट
 +
गृहचक्र, बिस्तर और खुदरा उदासियों की।
 +
 +
झाड़ती हैं जाले, संभालती हैं बक्से
 +
मेहनत से सुलझाती हैं भीतर तक उलझे बाल
 +
कर देती हैं चोटी-पाटी
 +
और डांटती भी जाती हैं कि री पगली तू
 +
किस धुन में रहती है
 +
कि बालों की गांठें भी तुझसे
 +
ठीक से निकलती नहीं।
 +
 +
बालों के बहाने
 +
वे गांठें सुलझाती हैं जीवन की
 +
करती हैं परिहास, सुनाती हैं किस्से
 +
और फिर हँसती-हँसाती
 +
दबी-सधी आवाज़ में बताती जाती हैं–
 +
चटनी-अचार-मूंगबड़ियाँ और बेस्वाद संबंध
 +
चटपटा बनाने के गुप्त मसाले और नुस्खे–
 +
सारी उन तकलीफ़ों के जिन पर
 +
ध्यान भी नहीं जाता औरों का।
 +
 +
आँखों के नीचे धीरे-धीरे
 +
जिसके पसर जाते हैं साये
 +
और गर्भ से रिसते हैं महीनों चुपचाप–
 +
खून के आँसू-से
 +
चालीस के आसपास के अकेलेपन के उन
 +
काले-कत्थई चकत्तों का
 +
मौसियों के वैद्यक में
 +
एक ही इलाज है–
 +
हँसी और कालीपूजा
 +
और पूरे मोहल्ले की अम्मागिरी।
 +
 +
बीसवीं शती की कूड़ागाड़ी
 +
लेती गई खेत से कोड़कर अपने
 +
जीवन की कुछ ज़रूरी चीजें–
 +
जैसे मौसीपन, बुआपन, चाचीपंथी,
 +
अम्मागिरी मग्न सारे भुवन की।
 +
 +
 +
(4) बेवजह
 +
 +
“अपनी जगह से गिर कर
 +
कहीं के नहीं रहते
 +
केश, औरतें और नाखून” -
 +
अन्वय करते थे किसी श्लोक को ऐसे
 +
हमारे संस्कृत टीचर।
 +
और मारे डर के जम जाती थीं
 +
हम लड़कियाँ अपनी जगह पर।
 +
 +
जगह ? जगह क्या होती है ?
 +
यह वैसे जान लिया था हमने
 +
अपनी पहली कक्षा में ही।
 +
 +
याद था हमें एक-एक क्षण
 +
आरंभिक पाठों का–
 +
राम, पाठशाला जा !
 +
राधा, खाना पका !
 +
राम, आ बताशा खा !
 +
राधा, झाड़ू लगा !
 +
भैया अब सोएगा
 +
जाकर बिस्तर बिछा !
 +
अहा, नया घर है !
 +
राम, देख यह तेरा कमरा है !
 +
‘और मेरा ?’
 +
‘ओ पगली,
 +
लड़कियाँ हवा, धूप, मिट्टी होती हैं
 +
उनका कोई घर नहीं होता।"
 +
 +
जिनका कोई घर नहीं होता–
 +
उनकी होती है भला कौन-सी जगह ?
 +
कौन-सी जगह होती है ऐसी
 +
जो छूट जाने पर औरत हो जाती है।
 +
 +
कटे हुए नाखूनों,
 +
कंघी में फंस कर बाहर आए केशों-सी
 +
एकदम से बुहार दी जाने वाली ?
 +
 +
घर छूटे, दर छूटे, छूट गए लोग-बाग
 +
कुछ प्रश्न पीछे पड़े थे, वे भी छूटे!
 +
छूटती गई जगहें
 +
लेकिन, कभी भी तो नेलकटर या कंघियों में
 +
फंसे पड़े होने का एहसास नहीं हुआ !
 +
 +
परंपरा से छूट कर बस यह लगता है–
 +
किसी बड़े क्लासिक से
 +
पासकोर्स बी.ए. के प्रश्नपत्र पर छिटकी
 +
छोटी-सी पंक्ति हूँ–
 +
चाहती नहीं लेकिन
 +
कोई करने बैठे
 +
मेरी व्याख्या सप्रसंग।
 +
 +
सारे संदर्भों के पार
 +
मुश्किल से उड़ कर पहुँची हूँ
 +
ऐसी ही समझी-पढ़ी जाऊँ
 +
जैसे तुकाराम का कोई
 +
अधूरा अंभग !
 +
 +
 +
(5) जुएं
 +
 +
किसी सोचते हुए आदमी की
 +
आँखों-सा नम और सुंदर था दिन।
 +
 +
पंडुक बहुत खुश थे
 +
उनके पंखों के रोएं
 +
उतरते हुए जाड़े की
 +
हल्की-सी सिहरन में
 +
सड़क पर निकल आए थे खटोले।
 +
पिटे हुए दो बच्चे
 +
गले-गले मिल सोए थे एक पर–
 +
दोनों के गाल पर ढलके आए थे
 +
एक-दूसरे के आँसू।
 +
 +
“औरतें इतना काटती क्यों हैं ?”
 +
कूड़े के कैलाश के पार
 +
गुड्डी चिपकाती हुई लड़की से
 +
मंझा लगाते हुए लड़के ने पूछा–
 +
“जब देखो, काट-कूट, छील-छाल, झाड़-झूड़
 +
गोभी पर, कपड़ों पर, दीवार पर
 +
किसका उतारती हैं गुस्सा ?"
 +
 +
हम घर के आगे हैं कूड़ा–
 +
फेंकी हुई चीजें भी
 +
खूब फोड़ देती हैं भांडा
 +
घर की असल हैसियत का !
 +
 +
लड़की ने कुछ जवाब देने की ज़रूरत नहीं समझी
 +
और झट से दौड़ कर, बैठ गई उधर
 +
जहाँ जुएं चुन रही थीं सखियाँ
 +
एक-दूसरे के छितराए हुए केशों से
 +
नारियल का तेल चपचपाकर
 +
दरअसल–
 +
जो चुनी जा रही थीं–
 +
सिर्फ़ जुएं नहीं थीं
 +
घर के वे सारे खटराग थे
 +
जिनसे भन्नाया पड़ा था उनका माथा।
 +
 +
क्या जाने कितनी शताब्दियों से
 +
चल रहा है यह सिलसिला
 +
और एक आदि स्त्री
 +
दूसरी उतनी ही पुरानी सखी के
 +
छितराए हुए केशों से
 +
चुन रही हैं जुएं
 +
सितारे और चमकुल !
 +
 +
 +
(6) पहली पेंशन
 +
 +
श्रीमती कार्लेकर
 +
अपनी पहली पेंशन लेकर
 +
जब घर लौटीं–
 +
सारी निलम्बित इच्छाएं
 +
अपना दावा पेश करने लगीं।
 +
 +
जहाँ जो भी टोकरी उठाई
 +
उसके नीचे छोटी चुहियों-सी
 +
दबी-पड़ी दीख गई कितनी इच्छाएं !
 +
 +
श्रीमती कार्लेकर उलझन में पड़ीं
 +
क्या-क्या खरीदें, किससे कैसे निबटें !
 +
सूझा नहीं कुछ तो झाड़न उठाई
 +
झाड़ आईं सब टोकरियाँ बाहर
 +
चूहेदानी में इच्छाएं फंसाईं
 +
(हुलर-मुलर सारी इच्छाएं)
 +
और कहा कार्लेकर साहब से–
 +
“चलो जरा, गंगा नहा आएं !”
 +
 +
 +
(7) चौका
 +
 +
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी
 +
ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़
 +
भूचाल बेलते हैं घर
 +
सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर।
 +
 +
रोज सुबह सूरज में
 +
एक नया उचकुन लगाकर
 +
एक नई धाह फेंककर
 +
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
 +
पृथ्वी– जो खुद एक लोई है
 +
सूरज के हाथों में
 +
रख दी गई है, पूरी की पूरी ही सामने
 +
कि लो, इसे बेलो, पकाओ
 +
जैसे मधुमक्खियाँ अपने पंखों की छांह में
 +
पकाती हैं शहद।
 +
 +
सारा शहर चुप है
 +
धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन।
 +
बुझ चुकी है आखिरी चूल्हे की राख भी
 +
और मैं
 +
अपने ही वजूद की आंच के आगे
 +
औचक हड़बड़ी में
 +
खुद को ही सानती
 +
खुद को ही गूंधती हुई बार-बार
 +
खुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
 +
 +
(8) अयाचित
 +
 +
मेरे भंडार में
 +
एक बोरा ‘अगला जनम’
 +
‘पिछला जनम’ सात कार्टन
 +
रख गई थी मेरी माँ।
 +
 +
चूहे बहुत चटोरे थे
 +
घुनों को पता ही नहीं था
 +
कुनबा सीमित रखने का नुस्खा
 +
... सो, सबों ने मिल-बांटकर
 +
मेरा भविष्य तीन चौथाई
 +
और अतीत आधा
 +
मजे से हजम कर लिया।
 +
 +
बाकी जो बचा
 +
उसे बीन-फटककर मैंने
 +
सब उधार चुकता किया
 +
हारी-बीमारी निकाली
 +
लेन-देन निबटा दिया।
 +
 +
अब मेरे पास भला क्या है ?
 +
अगर तुम्हें ऐसा लगता है
 +
कुछ है जो मेरी इन हड्डियों में है अब तक
 +
मसलन कि आग
 +
तो आओ
 +
अपनी लुकाठी सुलगाओ।
 +
 +
 +
(9) रिश्ता
 +
 +
वह बिलकुल अनजान थी!
 +
मेरा उससे रिश्ता बस इतना था
 +
कि हम एक पंसारी के गाहक थे
 +
नए मुहल्ले में।
 +
 +
वह मेरे पहले से बैठी थी
 +
टॉफी के मर्तबान से टिककर
 +
स्टूल के राजसिंहासन पर।
 +
 +
मुझसे भी ज्यादा थकी दीखती थी वह
 +
फिर भी वह हँसी !
 +
उस हँसी का न तर्क था
 +
न व्याकरण
 +
न सूत्र
 +
न अभिप्राय !
 +
वह ब्रह्म की हँसी थी।
 +
 +
उसने फिर हाथ भी बढ़ाया
 +
और मेरी शाल का सिरा उठाकर
 +
उसके सूत किए सीधे
 +
जो बस की किसी कील से लगकर
 +
भृकुटि की तरह सिकुड़ गए थे।
 +
 +
पल भर को लगा, उसके उन झुके कंधों से
 +
मेरे भन्नाए हुए सिर का
 +
बेहद पुराना है बहनापा।
 +
 +
 +
(10) एक औरत का पहला राजकीय प्रवास
 +
 +
वह होटल के कमरे में दाखिल हुई
 +
अपने अकेलेपन से उसने
 +
बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाया।
 +
 +
कमरे में अंधेरा था
 +
घुप्प अंधेरा था कुएं का
 +
उसके भीतर भी !
 +
 +
सारी दीवारें टटोली अंधेरे में
 +
लेकिन ‘स्विच’ कहीं नहीं था
 +
पूरा खुला था दरवाजा
 +
बरामदे की रोशनी से ही काम चल रहा था
 +
सामने से गुजरा जो ‘बेयरा’ तो
 +
आर्त्तभाव से उसे देखा
 +
उसने उलझन समझी और
 +
बाहर खड़े-ही-खड़े
 +
दरवाजा बंद कर दिया।
 +
 +
जैसे ही दरवाजा बंद हुआ
 +
बल्बों में रोशनी के खिल गए सहस्रदल कमल !
 +
“भला बंद होने से रोशनी का क्या है रिश्ता?” उसने सोचा।
 +
 +
डनलप पर लेटी
 +
चटाई चुभी घर की, अंदर कहीं– रीढ़ के भीतर !
 +
तो क्या एक राजकुमारी ही होती है हर औरत ?
 +
सात गलीचों के भीतर भी
 +
उसको चुभ जाता है
 +
कोई मटरदाना आदम स्मृतियों का ?
 +
 +
पढ़ने को बहुत-कुछ धरा था
 +
पर उसने बांची टेलीफोन तालिका
 +
और जानना चाहा
 +
अंतरराष्ट्रीय दूरभाष का ठीक-ठीक खर्चा।
 +
 +
फिर, अपनी सब डॉलरें खर्च करके
 +
उसने किए तीन अलग-अलग कॉल।
 +
 +
सबसे पहले अपने बच्चे से कहा–
 +
“हैलो-हैलो, बेटे–
 +
पैकिंग के वक्त... सूटकेस में ही तुम ऊंघ गए थे कैसे...
 +
सबसे ज्यादा याद आ रही है तुम्हारी
 +
तुम हो मेरे सबसे प्यारे !”
 +
 +
अंतिम दो पंक्तियाँ अलग-अलग उसने कहीं
 +
आफिस में खिन्न बैठे अंट-शंट सोचते अपने प्रिय से
 +
फिर, चौके में चिंतित, बर्तन खटकती अपनी माँ से।
 +
 +
... अब उसकी हुई गिरफ्तारी
 +
पेशी हुई खुदा के सामने
 +
कि इसी एक जुबां से उसने
 +
तीन-तीन लोगों से कैसे यह कहा–
 +
“सबसे ज्यादा तुम हो प्यारे !”
 +
यह तो सरासर है धोखा
 +
सबसे ज्यादा माने सबसे ज्यादा !
 +
 +
लेकिन, खुदा ने कलम रख दी
 +
और कहा–
 +
“औरत है, उसने यह गलत नहीं कहा !”
 +
00
 +
 +
 +
जन्म : 17 अगस्त 1961, मुजफ्फरपुर(बिहार)।
 +
शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय से अँग्रेजी में एम.ए., पी.एचडी.।
 +
अध्यापन- अँग्रेजी विभाग, सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय।
 +
कृतियाँ : गलत पते की चिट्ठी(कविता), बीजाक्षर(कविता), अनुष्टुप(कविता),पोस्ट–एलियट पोएट्री (आलोचना),स्त्रीत्व का मानचित्र(आलोचना),कहती हैं औरतें(कविता–संपादन),एक ठो शहर : एक गो लड़की(शहरगाथा)
 +
पुरस्कार/सम्मान : राष्ट्रभाषा परिषद् पुरस्कार, भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान और साहित्यकार सम्मान
 +
 +
संपर्क :
 +
डी–।।/83, किदवई नगर वेस्ट,
 +
नई दिल्ली।
 +
दूरभाष : 011–24105588
 +
ई मेल : anamika1961@yahoo.co.in

00:49, 14 दिसम्बर 2007 का अवतरण

लिखने की मेज वही है,
वही आसन,
पांडुलिपि वही, वही बासन
जिसमें मैं रखती थी खील-बताशा
दीया-बत्ती की वेला हर शाम !
कभी-कभी बेला और चम्पा भी
रख आती थी जाकर चुपचाप
खील-बताशा-पानी-दीया के साथ !

पूरे इक्कीस बरस बस यही जीवन-क्रम-
कुछ देर इन्हें देखती काम में लीन,
जैसे कि देखते हैं सुन्दर मूरत शिवजी की...
पत्थर की मूरत ही बने रहे ये पूरे इक्कीस साल !
फिर एक शाम एक आँधी-सी आयी,

बिखरने लगे ग्रन्थ के पन्ने,
टूटी तन्द्रा तो मुझे देखा
पन्नों के पीछे यों भागते हुए जैसे हिरनों के,

चौंके : ‘हे देवि,
परिचय तो दें,
आप कौन ?’

मुझको हँसी आ गयी-
‘लाये थे जब ब्याहकर तो छोटी थी न,
फिर आप लिखने में ऐसे लगे,
दुनिया की सुध बिसर गयी, लगता है जैसे भूल ही गये-

वेदान्त के भाष्य के ही समानान्तर
इस घर में बढ़ी जा रही है
पत्ती-पत्ती
आपकी भार्या भी !
तो क्या मैं इतनी बडी हो गयी
कि पहचान में ही नहीं आती ?’

पानी-पानी होकर
इस बात पर
पानी में ही
बहा आये
आप तो
अपनी वह पांडुलिपि,

जो मैं नहीं दौड़ती पीछे-
पृष्ठ बीछ ले आने पानी से,
गडमड हो चुकते सब अक्षर...
घुल जाती पानी में स्याही,
शब्द पर शब्द फिसल आते,
मेहनत से मैंने वे अक्षर भी बीछे,
जैसे कि चावल,
अक्षर पर अक्षर दुबारा उगाये
अपने सिंदूर और काजल से,
भूर्जपत्र फिर से सिले-
ताग-पात ढोलना लगाके !
अक्षर पर अक्षर
अक्षर पर अक्षर....
अक्षर मैं
और आप अक्षर,
टप-टप-टप-टपv ये लो,
रोते हैं क्या ज्ञानी-ध्यानी यों ?
क्यों रो रहे हैं जी...
चुप-चुप..?


(10) एक औरत का पहला राजकीय प्रवास (9) रिश्ता (8) अयाचित (7) चौका (6) पहली पेंशन (5) जुएं (4) बेवजह (3) मौसियाँ (2) दरवाज़ा (1) स्त्रियाँ

पढ़ा गया हमको जैसे पढ़ा जाता है कागज बच्चों की फटी कॉपियों का ‘चनाजोरगरम’ के लिफाफे के बनने से पहले ! देखा गया हमको जैसे कि कुफ्त हो उनींदे देखी जाती है कलाई घड़ी अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !

सुना गया हमको यों ही उड़ते मन से जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने सस्ते कैसेटों पर ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !

भोगा गया हमको बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह एक दिन हमने कहा– हम भी इंसा हैं हमें कायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद नौकरी का पहला विज्ञापन।

देखो तो ऐसे जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है बहुत दूर जलती हुई आग।

सुनो, हमें अनहद की तरह और समझो जैसे समझी जाती है नई-नई सीखी हुई भाषा।

इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई एक अदृश्य टहनी से टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफवाहें चींखती हुई चीं-चीं ‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं– किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं अगरधत्त जंगल लताएं ! खाती-पीती, सुख से ऊबी और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही शगल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ। फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’ (कनखियाँ इशारे, फिर कनखी) बाकी कहानी बस कनखी है।

हे परमपिताओं, परमपुरुषों– बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो !


(2) दरवाज़ा

मैं एक दरवाज़ा थी मुझे जितना पीटा गया मैं उतना ही खुलती गई। अंदर आए आने वाले तो देखा– चल रहा है एक वृहत्चक्र– चक्की रुकती है तो चरखा चलता है चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई गरज यह कि चलता ही रहता है अनवरत कुछ-कुछ ! ... और अन्त में सब पर चल जाती है झाड़ू तारे बुहारती हुई बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर– सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो एक टोकरी में जमा करती जाती है मन की दुछत्ती पर।

(3) मौसियाँ

वे बारिश में धूप की तरह आती हैं– थोड़े समय के लिए और अचानक हाथ के बुने स्वेटर, इंद्रधनुष, तिल के लड्डू और सधोर की साड़ी लेकर वे आती हैं झूला झुलाने पहली मितली की ख़बर पाकर और गर्भ सहलाकर लेती हैं अन्तरिम रपट गृहचक्र, बिस्तर और खुदरा उदासियों की।

झाड़ती हैं जाले, संभालती हैं बक्से मेहनत से सुलझाती हैं भीतर तक उलझे बाल कर देती हैं चोटी-पाटी और डांटती भी जाती हैं कि री पगली तू किस धुन में रहती है कि बालों की गांठें भी तुझसे ठीक से निकलती नहीं।

बालों के बहाने वे गांठें सुलझाती हैं जीवन की करती हैं परिहास, सुनाती हैं किस्से और फिर हँसती-हँसाती दबी-सधी आवाज़ में बताती जाती हैं– चटनी-अचार-मूंगबड़ियाँ और बेस्वाद संबंध चटपटा बनाने के गुप्त मसाले और नुस्खे– सारी उन तकलीफ़ों के जिन पर ध्यान भी नहीं जाता औरों का।

आँखों के नीचे धीरे-धीरे जिसके पसर जाते हैं साये और गर्भ से रिसते हैं महीनों चुपचाप– खून के आँसू-से चालीस के आसपास के अकेलेपन के उन काले-कत्थई चकत्तों का मौसियों के वैद्यक में एक ही इलाज है– हँसी और कालीपूजा और पूरे मोहल्ले की अम्मागिरी।

बीसवीं शती की कूड़ागाड़ी लेती गई खेत से कोड़कर अपने जीवन की कुछ ज़रूरी चीजें– जैसे मौसीपन, बुआपन, चाचीपंथी, अम्मागिरी मग्न सारे भुवन की।


(4) बेवजह

“अपनी जगह से गिर कर कहीं के नहीं रहते केश, औरतें और नाखून” - अन्वय करते थे किसी श्लोक को ऐसे हमारे संस्कृत टीचर। और मारे डर के जम जाती थीं हम लड़कियाँ अपनी जगह पर।

जगह ? जगह क्या होती है ? यह वैसे जान लिया था हमने अपनी पहली कक्षा में ही।

याद था हमें एक-एक क्षण आरंभिक पाठों का– राम, पाठशाला जा ! राधा, खाना पका ! राम, आ बताशा खा ! राधा, झाड़ू लगा ! भैया अब सोएगा जाकर बिस्तर बिछा ! अहा, नया घर है ! राम, देख यह तेरा कमरा है ! ‘और मेरा ?’ ‘ओ पगली, लड़कियाँ हवा, धूप, मिट्टी होती हैं उनका कोई घर नहीं होता।"

जिनका कोई घर नहीं होता– उनकी होती है भला कौन-सी जगह ? कौन-सी जगह होती है ऐसी जो छूट जाने पर औरत हो जाती है।

कटे हुए नाखूनों, कंघी में फंस कर बाहर आए केशों-सी एकदम से बुहार दी जाने वाली ?

घर छूटे, दर छूटे, छूट गए लोग-बाग कुछ प्रश्न पीछे पड़े थे, वे भी छूटे! छूटती गई जगहें लेकिन, कभी भी तो नेलकटर या कंघियों में फंसे पड़े होने का एहसास नहीं हुआ !

परंपरा से छूट कर बस यह लगता है– किसी बड़े क्लासिक से पासकोर्स बी.ए. के प्रश्नपत्र पर छिटकी छोटी-सी पंक्ति हूँ– चाहती नहीं लेकिन कोई करने बैठे मेरी व्याख्या सप्रसंग।

सारे संदर्भों के पार मुश्किल से उड़ कर पहुँची हूँ ऐसी ही समझी-पढ़ी जाऊँ जैसे तुकाराम का कोई अधूरा अंभग !


(5) जुएं

किसी सोचते हुए आदमी की आँखों-सा नम और सुंदर था दिन।

पंडुक बहुत खुश थे उनके पंखों के रोएं उतरते हुए जाड़े की हल्की-सी सिहरन में सड़क पर निकल आए थे खटोले। पिटे हुए दो बच्चे गले-गले मिल सोए थे एक पर– दोनों के गाल पर ढलके आए थे एक-दूसरे के आँसू।

“औरतें इतना काटती क्यों हैं ?” कूड़े के कैलाश के पार गुड्डी चिपकाती हुई लड़की से मंझा लगाते हुए लड़के ने पूछा– “जब देखो, काट-कूट, छील-छाल, झाड़-झूड़ गोभी पर, कपड़ों पर, दीवार पर किसका उतारती हैं गुस्सा ?"

हम घर के आगे हैं कूड़ा– फेंकी हुई चीजें भी खूब फोड़ देती हैं भांडा घर की असल हैसियत का !

लड़की ने कुछ जवाब देने की ज़रूरत नहीं समझी और झट से दौड़ कर, बैठ गई उधर जहाँ जुएं चुन रही थीं सखियाँ एक-दूसरे के छितराए हुए केशों से नारियल का तेल चपचपाकर दरअसल– जो चुनी जा रही थीं– सिर्फ़ जुएं नहीं थीं घर के वे सारे खटराग थे जिनसे भन्नाया पड़ा था उनका माथा।

क्या जाने कितनी शताब्दियों से चल रहा है यह सिलसिला और एक आदि स्त्री दूसरी उतनी ही पुरानी सखी के छितराए हुए केशों से चुन रही हैं जुएं सितारे और चमकुल !


(6) पहली पेंशन

श्रीमती कार्लेकर अपनी पहली पेंशन लेकर जब घर लौटीं– सारी निलम्बित इच्छाएं अपना दावा पेश करने लगीं।

जहाँ जो भी टोकरी उठाई उसके नीचे छोटी चुहियों-सी दबी-पड़ी दीख गई कितनी इच्छाएं !

श्रीमती कार्लेकर उलझन में पड़ीं क्या-क्या खरीदें, किससे कैसे निबटें ! सूझा नहीं कुछ तो झाड़न उठाई झाड़ आईं सब टोकरियाँ बाहर चूहेदानी में इच्छाएं फंसाईं (हुलर-मुलर सारी इच्छाएं) और कहा कार्लेकर साहब से– “चलो जरा, गंगा नहा आएं !”


(7) चौका

मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़ भूचाल बेलते हैं घर सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर।

रोज सुबह सूरज में एक नया उचकुन लगाकर एक नई धाह फेंककर मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी। पृथ्वी– जो खुद एक लोई है सूरज के हाथों में रख दी गई है, पूरी की पूरी ही सामने कि लो, इसे बेलो, पकाओ जैसे मधुमक्खियाँ अपने पंखों की छांह में पकाती हैं शहद।

सारा शहर चुप है धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन। बुझ चुकी है आखिरी चूल्हे की राख भी और मैं अपने ही वजूद की आंच के आगे औचक हड़बड़ी में खुद को ही सानती खुद को ही गूंधती हुई बार-बार खुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।

(8) अयाचित

मेरे भंडार में एक बोरा ‘अगला जनम’ ‘पिछला जनम’ सात कार्टन रख गई थी मेरी माँ।

चूहे बहुत चटोरे थे घुनों को पता ही नहीं था कुनबा सीमित रखने का नुस्खा ... सो, सबों ने मिल-बांटकर मेरा भविष्य तीन चौथाई और अतीत आधा मजे से हजम कर लिया।

बाकी जो बचा उसे बीन-फटककर मैंने सब उधार चुकता किया हारी-बीमारी निकाली लेन-देन निबटा दिया।

अब मेरे पास भला क्या है ? अगर तुम्हें ऐसा लगता है कुछ है जो मेरी इन हड्डियों में है अब तक मसलन कि आग तो आओ अपनी लुकाठी सुलगाओ।


(9) रिश्ता

वह बिलकुल अनजान थी! मेरा उससे रिश्ता बस इतना था कि हम एक पंसारी के गाहक थे नए मुहल्ले में।

वह मेरे पहले से बैठी थी टॉफी के मर्तबान से टिककर स्टूल के राजसिंहासन पर।

मुझसे भी ज्यादा थकी दीखती थी वह फिर भी वह हँसी ! उस हँसी का न तर्क था न व्याकरण न सूत्र न अभिप्राय ! वह ब्रह्म की हँसी थी।

उसने फिर हाथ भी बढ़ाया और मेरी शाल का सिरा उठाकर उसके सूत किए सीधे जो बस की किसी कील से लगकर भृकुटि की तरह सिकुड़ गए थे।

पल भर को लगा, उसके उन झुके कंधों से मेरे भन्नाए हुए सिर का बेहद पुराना है बहनापा।


(10) एक औरत का पहला राजकीय प्रवास

वह होटल के कमरे में दाखिल हुई अपने अकेलेपन से उसने बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाया।

कमरे में अंधेरा था घुप्प अंधेरा था कुएं का उसके भीतर भी !

सारी दीवारें टटोली अंधेरे में लेकिन ‘स्विच’ कहीं नहीं था पूरा खुला था दरवाजा बरामदे की रोशनी से ही काम चल रहा था सामने से गुजरा जो ‘बेयरा’ तो आर्त्तभाव से उसे देखा उसने उलझन समझी और बाहर खड़े-ही-खड़े दरवाजा बंद कर दिया।

जैसे ही दरवाजा बंद हुआ बल्बों में रोशनी के खिल गए सहस्रदल कमल ! “भला बंद होने से रोशनी का क्या है रिश्ता?” उसने सोचा।

डनलप पर लेटी चटाई चुभी घर की, अंदर कहीं– रीढ़ के भीतर ! तो क्या एक राजकुमारी ही होती है हर औरत ? सात गलीचों के भीतर भी उसको चुभ जाता है कोई मटरदाना आदम स्मृतियों का ?

पढ़ने को बहुत-कुछ धरा था पर उसने बांची टेलीफोन तालिका और जानना चाहा अंतरराष्ट्रीय दूरभाष का ठीक-ठीक खर्चा।

फिर, अपनी सब डॉलरें खर्च करके उसने किए तीन अलग-अलग कॉल।

सबसे पहले अपने बच्चे से कहा– “हैलो-हैलो, बेटे– पैकिंग के वक्त... सूटकेस में ही तुम ऊंघ गए थे कैसे... सबसे ज्यादा याद आ रही है तुम्हारी तुम हो मेरे सबसे प्यारे !”

अंतिम दो पंक्तियाँ अलग-अलग उसने कहीं आफिस में खिन्न बैठे अंट-शंट सोचते अपने प्रिय से फिर, चौके में चिंतित, बर्तन खटकती अपनी माँ से।

... अब उसकी हुई गिरफ्तारी पेशी हुई खुदा के सामने कि इसी एक जुबां से उसने तीन-तीन लोगों से कैसे यह कहा– “सबसे ज्यादा तुम हो प्यारे !” यह तो सरासर है धोखा सबसे ज्यादा माने सबसे ज्यादा !

लेकिन, खुदा ने कलम रख दी और कहा– “औरत है, उसने यह गलत नहीं कहा !” 00


जन्म : 17 अगस्त 1961, मुजफ्फरपुर(बिहार)। शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय से अँग्रेजी में एम.ए., पी.एचडी.। अध्यापन- अँग्रेजी विभाग, सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय। कृतियाँ : गलत पते की चिट्ठी(कविता), बीजाक्षर(कविता), अनुष्टुप(कविता),पोस्ट–एलियट पोएट्री (आलोचना),स्त्रीत्व का मानचित्र(आलोचना),कहती हैं औरतें(कविता–संपादन),एक ठो शहर : एक गो लड़की(शहरगाथा) पुरस्कार/सम्मान : राष्ट्रभाषा परिषद् पुरस्कार, भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान और साहित्यकार सम्मान

संपर्क : डी–।।/83, किदवई नगर वेस्ट, नई दिल्ली। दूरभाष : 011–24105588 ई मेल : anamika1961@yahoo.co.in