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पंक्ति 70: |
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− | (10) एक औरत का पहला राजकीय प्रवास
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− | (9) रिश्ता
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− | (8) अयाचित
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− | (7) चौका
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− | (6) पहली पेंशन
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− | (5) जुएं
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− | (4) बेवजह
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− | (3) मौसियाँ
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− | (2) दरवाज़ा
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− | (1) स्त्रियाँ
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− | पढ़ा गया हमको
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− | जैसे पढ़ा जाता है कागज
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− | बच्चों की फटी कॉपियों का
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− | ‘चनाजोरगरम’ के लिफाफे के बनने से पहले !
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− | देखा गया हमको
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− | जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
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− | देखी जाती है कलाई घड़ी
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− | अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !
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− | सुना गया हमको
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− | यों ही उड़ते मन से
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− | जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने
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− | सस्ते कैसेटों पर
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− | ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !
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− | भोगा गया हमको
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− | बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
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− | एक दिन हमने कहा–
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− | हम भी इंसा हैं
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− | हमें कायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
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− | जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
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− | नौकरी का पहला विज्ञापन।
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− | देखो तो ऐसे
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− | जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
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− | बहुत दूर जलती हुई आग।
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− | सुनो, हमें अनहद की तरह
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− | और समझो जैसे समझी जाती है
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− | नई-नई सीखी हुई भाषा।
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− | इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
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− | एक अदृश्य टहनी से
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− | टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफवाहें
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− | चींखती हुई चीं-चीं
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− | ‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं–
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− | किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं
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− | अगरधत्त जंगल लताएं !
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− | खाती-पीती, सुख से ऊबी
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− | और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही
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− | शगल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ।
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− | फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’
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− | (कनखियाँ इशारे, फिर कनखी)
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− | बाकी कहानी बस कनखी है।
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− | हे परमपिताओं,
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− | परमपुरुषों–
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− | बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो !
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− | (2) दरवाज़ा
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− | मैं एक दरवाज़ा थी
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− | मुझे जितना पीटा गया
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− | मैं उतना ही खुलती गई।
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− | अंदर आए आने वाले तो देखा–
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− | चल रहा है एक वृहत्चक्र–
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− | चक्की रुकती है तो चरखा चलता है
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− | चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई
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− | गरज यह कि चलता ही रहता है
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− | अनवरत कुछ-कुछ !
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− | ... और अन्त में सब पर चल जाती है झाड़ू
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− | तारे बुहारती हुई
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− | बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर–
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− | सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो
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− | एक टोकरी में जमा करती जाती है
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− | मन की दुछत्ती पर।
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− | (3) मौसियाँ
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− | वे बारिश में धूप की तरह आती हैं–
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− | थोड़े समय के लिए और अचानक
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− | हाथ के बुने स्वेटर, इंद्रधनुष, तिल के लड्डू
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− | और सधोर की साड़ी लेकर
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− | वे आती हैं झूला झुलाने
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− | पहली मितली की ख़बर पाकर
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− | और गर्भ सहलाकर
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− | लेती हैं अन्तरिम रपट
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− | गृहचक्र, बिस्तर और खुदरा उदासियों की।
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− | झाड़ती हैं जाले, संभालती हैं बक्से
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− | मेहनत से सुलझाती हैं भीतर तक उलझे बाल
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− | कर देती हैं चोटी-पाटी
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− | और डांटती भी जाती हैं कि री पगली तू
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− | किस धुन में रहती है
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− | कि बालों की गांठें भी तुझसे
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− | ठीक से निकलती नहीं।
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− | बालों के बहाने
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− | वे गांठें सुलझाती हैं जीवन की
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− | करती हैं परिहास, सुनाती हैं किस्से
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− | और फिर हँसती-हँसाती
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− | दबी-सधी आवाज़ में बताती जाती हैं–
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− | चटनी-अचार-मूंगबड़ियाँ और बेस्वाद संबंध
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− | चटपटा बनाने के गुप्त मसाले और नुस्खे–
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− | सारी उन तकलीफ़ों के जिन पर
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− | ध्यान भी नहीं जाता औरों का।
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− | आँखों के नीचे धीरे-धीरे
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− | जिसके पसर जाते हैं साये
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− | और गर्भ से रिसते हैं महीनों चुपचाप–
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− | खून के आँसू-से
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− | चालीस के आसपास के अकेलेपन के उन
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− | काले-कत्थई चकत्तों का
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− | मौसियों के वैद्यक में
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− | एक ही इलाज है–
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− | हँसी और कालीपूजा
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− | और पूरे मोहल्ले की अम्मागिरी।
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− | बीसवीं शती की कूड़ागाड़ी
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− | लेती गई खेत से कोड़कर अपने
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− | जीवन की कुछ ज़रूरी चीजें–
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− | जैसे मौसीपन, बुआपन, चाचीपंथी,
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− | अम्मागिरी मग्न सारे भुवन की।
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− | (4) बेवजह
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− | “अपनी जगह से गिर कर
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− | कहीं के नहीं रहते
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− | केश, औरतें और नाखून” -
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− | अन्वय करते थे किसी श्लोक को ऐसे
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− | हमारे संस्कृत टीचर।
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− | और मारे डर के जम जाती थीं
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− | हम लड़कियाँ अपनी जगह पर।
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− | जगह ? जगह क्या होती है ?
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− | यह वैसे जान लिया था हमने
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− | अपनी पहली कक्षा में ही।
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− | याद था हमें एक-एक क्षण
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− | आरंभिक पाठों का–
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− | राम, पाठशाला जा !
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− | राधा, खाना पका !
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− | राम, आ बताशा खा !
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− | राधा, झाड़ू लगा !
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− | भैया अब सोएगा
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− | जाकर बिस्तर बिछा !
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− | अहा, नया घर है !
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− | राम, देख यह तेरा कमरा है !
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− | ‘और मेरा ?’
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− | ‘ओ पगली,
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− | लड़कियाँ हवा, धूप, मिट्टी होती हैं
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− | उनका कोई घर नहीं होता।"
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− | जिनका कोई घर नहीं होता–
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− | उनकी होती है भला कौन-सी जगह ?
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− | कौन-सी जगह होती है ऐसी
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− | जो छूट जाने पर औरत हो जाती है।
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− | कटे हुए नाखूनों,
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− | कंघी में फंस कर बाहर आए केशों-सी
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− | एकदम से बुहार दी जाने वाली ?
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− | घर छूटे, दर छूटे, छूट गए लोग-बाग
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− | कुछ प्रश्न पीछे पड़े थे, वे भी छूटे!
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− | छूटती गई जगहें
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− | लेकिन, कभी भी तो नेलकटर या कंघियों में
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− | फंसे पड़े होने का एहसास नहीं हुआ !
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− | परंपरा से छूट कर बस यह लगता है–
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− | किसी बड़े क्लासिक से
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− | पासकोर्स बी.ए. के प्रश्नपत्र पर छिटकी
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− | छोटी-सी पंक्ति हूँ–
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− | चाहती नहीं लेकिन
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− | कोई करने बैठे
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− | मेरी व्याख्या सप्रसंग।
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− | सारे संदर्भों के पार
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− | मुश्किल से उड़ कर पहुँची हूँ
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− | ऐसी ही समझी-पढ़ी जाऊँ
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− | जैसे तुकाराम का कोई
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− | अधूरा अंभग !
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− | (5) जुएं
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− | किसी सोचते हुए आदमी की
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− | आँखों-सा नम और सुंदर था दिन।
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− | पंडुक बहुत खुश थे
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− | उनके पंखों के रोएं
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− | उतरते हुए जाड़े की
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− | हल्की-सी सिहरन में
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− | सड़क पर निकल आए थे खटोले।
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− | पिटे हुए दो बच्चे
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− | गले-गले मिल सोए थे एक पर–
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− | दोनों के गाल पर ढलके आए थे
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− | एक-दूसरे के आँसू।
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− | “औरतें इतना काटती क्यों हैं ?”
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− | कूड़े के कैलाश के पार
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− | गुड्डी चिपकाती हुई लड़की से
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− | मंझा लगाते हुए लड़के ने पूछा–
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− | “जब देखो, काट-कूट, छील-छाल, झाड़-झूड़
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− | गोभी पर, कपड़ों पर, दीवार पर
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− | किसका उतारती हैं गुस्सा ?"
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− | हम घर के आगे हैं कूड़ा–
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− | फेंकी हुई चीजें भी
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− | खूब फोड़ देती हैं भांडा
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− | घर की असल हैसियत का !
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− | लड़की ने कुछ जवाब देने की ज़रूरत नहीं समझी
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− | और झट से दौड़ कर, बैठ गई उधर
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− | जहाँ जुएं चुन रही थीं सखियाँ
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− | एक-दूसरे के छितराए हुए केशों से
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− | नारियल का तेल चपचपाकर
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− | दरअसल–
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− | जो चुनी जा रही थीं–
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− | सिर्फ़ जुएं नहीं थीं
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− | घर के वे सारे खटराग थे
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− | जिनसे भन्नाया पड़ा था उनका माथा।
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− | क्या जाने कितनी शताब्दियों से
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− | चल रहा है यह सिलसिला
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− | और एक आदि स्त्री
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− | दूसरी उतनी ही पुरानी सखी के
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− | छितराए हुए केशों से
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− | चुन रही हैं जुएं
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− | सितारे और चमकुल !
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− | (6) पहली पेंशन
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− | श्रीमती कार्लेकर
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− | अपनी पहली पेंशन लेकर
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− | जब घर लौटीं–
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− | सारी निलम्बित इच्छाएं
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− | अपना दावा पेश करने लगीं।
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− | जहाँ जो भी टोकरी उठाई
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− | उसके नीचे छोटी चुहियों-सी
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− | दबी-पड़ी दीख गई कितनी इच्छाएं !
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− | श्रीमती कार्लेकर उलझन में पड़ीं
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− | क्या-क्या खरीदें, किससे कैसे निबटें !
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− | सूझा नहीं कुछ तो झाड़न उठाई
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− | झाड़ आईं सब टोकरियाँ बाहर
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− | चूहेदानी में इच्छाएं फंसाईं
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− | (हुलर-मुलर सारी इच्छाएं)
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− | और कहा कार्लेकर साहब से–
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− | “चलो जरा, गंगा नहा आएं !”
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− | (7) चौका
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− | मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी
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− | ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़
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− | भूचाल बेलते हैं घर
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− | सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर।
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− | रोज सुबह सूरज में
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− | एक नया उचकुन लगाकर
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− | एक नई धाह फेंककर
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− | मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
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− | पृथ्वी– जो खुद एक लोई है
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− | सूरज के हाथों में
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− | रख दी गई है, पूरी की पूरी ही सामने
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− | कि लो, इसे बेलो, पकाओ
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− | जैसे मधुमक्खियाँ अपने पंखों की छांह में
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− | पकाती हैं शहद।
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− | सारा शहर चुप है
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− | धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन।
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− | बुझ चुकी है आखिरी चूल्हे की राख भी
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− | और मैं
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− | अपने ही वजूद की आंच के आगे
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− | औचक हड़बड़ी में
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− | खुद को ही सानती
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− | खुद को ही गूंधती हुई बार-बार
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− | खुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
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− | (8) अयाचित
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− | मेरे भंडार में
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− | एक बोरा ‘अगला जनम’
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− | ‘पिछला जनम’ सात कार्टन
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− | रख गई थी मेरी माँ।
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− | चूहे बहुत चटोरे थे
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− | घुनों को पता ही नहीं था
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− | कुनबा सीमित रखने का नुस्खा
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− | ... सो, सबों ने मिल-बांटकर
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− | मेरा भविष्य तीन चौथाई
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− | और अतीत आधा
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− | मजे से हजम कर लिया।
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− | बाकी जो बचा
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− | उसे बीन-फटककर मैंने
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− | सब उधार चुकता किया
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− | हारी-बीमारी निकाली
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− | लेन-देन निबटा दिया।
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− | अब मेरे पास भला क्या है ?
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− | अगर तुम्हें ऐसा लगता है
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− | कुछ है जो मेरी इन हड्डियों में है अब तक
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− | मसलन कि आग
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− | तो आओ
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− | अपनी लुकाठी सुलगाओ।
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− | (9) रिश्ता
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− | वह बिलकुल अनजान थी!
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− | मेरा उससे रिश्ता बस इतना था
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− | कि हम एक पंसारी के गाहक थे
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− | नए मुहल्ले में।
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− | वह मेरे पहले से बैठी थी
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− | टॉफी के मर्तबान से टिककर
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− | स्टूल के राजसिंहासन पर।
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− | मुझसे भी ज्यादा थकी दीखती थी वह
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− | फिर भी वह हँसी !
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− | उस हँसी का न तर्क था
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− | न व्याकरण
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− | न सूत्र
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− | न अभिप्राय !
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− | वह ब्रह्म की हँसी थी।
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− | उसने फिर हाथ भी बढ़ाया
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− | और मेरी शाल का सिरा उठाकर
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− | उसके सूत किए सीधे
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− | जो बस की किसी कील से लगकर
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− | भृकुटि की तरह सिकुड़ गए थे।
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− | पल भर को लगा, उसके उन झुके कंधों से
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− | मेरे भन्नाए हुए सिर का
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− | बेहद पुराना है बहनापा।
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− | (10) एक औरत का पहला राजकीय प्रवास
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− | वह होटल के कमरे में दाखिल हुई
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− | अपने अकेलेपन से उसने
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− | बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाया।
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− | कमरे में अंधेरा था
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− | घुप्प अंधेरा था कुएं का
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− | उसके भीतर भी !
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− | सारी दीवारें टटोली अंधेरे में
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− | लेकिन ‘स्विच’ कहीं नहीं था
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− | पूरा खुला था दरवाजा
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− | बरामदे की रोशनी से ही काम चल रहा था
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− | सामने से गुजरा जो ‘बेयरा’ तो
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− | आर्त्तभाव से उसे देखा
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− | उसने उलझन समझी और
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− | बाहर खड़े-ही-खड़े
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− | दरवाजा बंद कर दिया।
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− | जैसे ही दरवाजा बंद हुआ
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− | बल्बों में रोशनी के खिल गए सहस्रदल कमल !
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− | “भला बंद होने से रोशनी का क्या है रिश्ता?” उसने सोचा।
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− | डनलप पर लेटी
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− | चटाई चुभी घर की, अंदर कहीं– रीढ़ के भीतर !
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− | तो क्या एक राजकुमारी ही होती है हर औरत ?
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− | सात गलीचों के भीतर भी
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− | उसको चुभ जाता है
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− | कोई मटरदाना आदम स्मृतियों का ?
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− | पढ़ने को बहुत-कुछ धरा था
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− | पर उसने बांची टेलीफोन तालिका
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− | और जानना चाहा
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− | अंतरराष्ट्रीय दूरभाष का ठीक-ठीक खर्चा।
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− | फिर, अपनी सब डॉलरें खर्च करके
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− | उसने किए तीन अलग-अलग कॉल।
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− | सबसे पहले अपने बच्चे से कहा–
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− | “हैलो-हैलो, बेटे–
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− | पैकिंग के वक्त... सूटकेस में ही तुम ऊंघ गए थे कैसे...
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− | सबसे ज्यादा याद आ रही है तुम्हारी
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− | तुम हो मेरे सबसे प्यारे !”
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− |
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− | अंतिम दो पंक्तियाँ अलग-अलग उसने कहीं
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− | आफिस में खिन्न बैठे अंट-शंट सोचते अपने प्रिय से
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− | फिर, चौके में चिंतित, बर्तन खटकती अपनी माँ से।
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− | ... अब उसकी हुई गिरफ्तारी
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− | पेशी हुई खुदा के सामने
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− | कि इसी एक जुबां से उसने
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− | तीन-तीन लोगों से कैसे यह कहा–
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− | “सबसे ज्यादा तुम हो प्यारे !”
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− | यह तो सरासर है धोखा
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− | सबसे ज्यादा माने सबसे ज्यादा !
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− | लेकिन, खुदा ने कलम रख दी
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− | और कहा–
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− | “औरत है, उसने यह गलत नहीं कहा !”
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− | 00
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जन्म : 17 अगस्त 1961, मुजफ्फरपुर(बिहार)।
शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय से अँग्रेजी में एम.ए., पी.एचडी.।
अध्यापन- अँग्रेजी विभाग, सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय।
कृतियाँ : गलत पते की चिट्ठी(कविता), बीजाक्षर(कविता), अनुष्टुप(कविता),पोस्ट–एलियट पोएट्री (आलोचना),स्त्रीत्व का मानचित्र(आलोचना),कहती हैं औरतें(कविता–संपादन),एक ठो शहर : एक गो लड़की(शहरगाथा)
पुरस्कार/सम्मान : राष्ट्रभाषा परिषद् पुरस्कार, भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान और साहित्यकार सम्मान
संपर्क :
डी–।।/83, किदवई नगर वेस्ट,
नई दिल्ली।
दूरभाष : 011–24105588
ई मेल : anamika1961@yahoo.co.in