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हिज्जे
मैं रत्ना-कहते थे मुझको रतन तुलसी<br>
रतन-मगर गूदड़ में सिला हुआ !<br>किसी-किसी तरह सांस साँस लेती रही<br>
अपने गूदड़ में<br>
उजबुजाती-अकबकाती हुई !<br>सदियों तक मैंने किया इन्तजारइन्तज़ार-<br>
आएगा कोई, तोड़ेगा टाँके गूदड़ के,<br>
ले जाएगा मुझको आके !<br><br>
पर तुमने तो पा लिया था अब राम-रतन,<br>
इस रत्ना की याद आती क्यों ?<br>
‘घन-घमंड’ वाली चौपाई भी लिखते हुए<br>
याद आयी आई ?...नहीं आयी आई?<br>
‘घन-घमंड’ वाली ही थी रात वह भी<br>
जब मैं तुमसे झगड़ी थी !<br>
कोई जाने या नहीं जाने, मैं जानती हूँ क्यों तुमने<br>
‘घमंड’ की पटरी ‘घन’ से बैठाई !<br><br>
नैहर बस घर ही नहीं होता,<br>
होता है नैहर अगरधत्त अँगड़ाईअंगड़ाई,<br>एक निश्चिन्त उबासी, एक नन्ही-सी फुर्सत फ़ुर्सत!<br>तुमने उस इत्ती-सी फुर्सत फ़ुर्सत पर<br>
बोल दिया धावा<br>
तो मेरे हे रामबोला, बमभोला-<br>
मैंने तुम्हें डाँटा !<br><br>
डाँटा तो सुन लेते<br>
जैसे सुना करती थी मैं तुम्हारी...<br>
पर तुमने दिशा ही बदल दी !<br>थोड़ी सी फुर्सत चाही थी !<br>फुर्सत फ़ुर्सत नमक ही है, चाहिए थोड़ी-सी,<br>तुमने तो सारा समुन्दर ही फुर्सत फ़ुर्सत का<br>सर पर पटक डाला !<br><br>
रोज फींचती हूँ मैं साड़ी<br>
कितने पटके, कितनी रगड़-झगड़-<br>
तार-तार होकर भी<br>
वह मुझसे रहती है सटी हुई !<br>अलगनी से किसी आँधी आंधी में<br>उड़ तो नहीं जाती !<br><br>
कुछ देर को रूठ सकते थे,<br>
ये क्या कि छोड़ चले !<br>
क्या सिर्फ गलियों-चौबारों में मिलते हैं<br>
राम तुम्हारे ?<br>
‘आराम’ में भी तो एक ‘राम’ है कि नहीं-<br>
‘आराम’ जो तुमको मेरी गोदी में मिलता था ?<br>मेरी गोदी भी अयोध्या थी, थी काशी !<br>तुमने कोशिश तो की होती इस काशी-करवट की !<br>
एक ‘विनय पत्रिका’ मेरी भी तो है,<br>
लिखी गयी थी वो समानान्तर<br>
लेकिन बाँची नहीं गयी अब तलक !<br><br>
जब कुछ सखियों ने बताया-<br>
हर आने-जाने वाले को-<br>
मैंने सोचा, मैं भी हो आऊँ,<br>
चौंका दूँ एकदम से सामने आकर !<br>
पर एक नन्हा-सा डर भी<br>
पल रहा था गर्भ में मेरे,<br>
क्या होगा जो तुम पहचान नहीं पायेपाए<br>भक्तों की भीड़-भाड़ में ?<br><br>
आईना कहता है, बदल गया है मेरा चेहरा,<br>
उतर गया है मेरे चेहरे का सारा नमक<br>
नमक से नमक धुल गया है (आँखों से चेहरे का !)<br><br>
आँखों के नीचे<br>
गहरी गुफा की<br>
हहाती हुई एक साँझ सांझ उतर आयी है !<br>
गर्दन के नीचे के दोनों कबूतर<br>
चोंच अपनी गड़ाकर पंख में बैठे-<br>
काँपते हैं लगातार-<br>
आँसू की दो बड़ी बूँदें बूंदें ही अब दीखते हैं वे !<br><br>
सोचती हूँ-कैसे वे लगते-<br>
दूध की दो बड़ी बूँदें बूंदें जो होते- <br>
आँचल में होता जो कोई रामबोला-<br>
सीधा उसके होंठ में वे टपकते !<br>सोचती गयी रास्ते-भर-कैसे मिलोगे !<br>
सौत तो नहीं न बनी होगी<br>
वो तुम्हारी रामभक्ति<br><br>
एक बार नहीं, कुल सात बार<br>
पास मैं तुम्हारे गयीगई<br>सात बहाने लेकर !<br>
देखा नहीं लेकिन एक बार भी तुमने<br>
आँख उठाकर !<br>क्या मेरी आवाज आवाज़ भूल गये-<br>
जिसकी हल्की-सी भी खुसुर-फुसुर पर<br>
तुममें हहा उठता था समुन्दर ?<br>वो ही आवाज भीड़ में खो गयीगई<br>जैसे आनी-जानी कोई लहर !<br>
‘तटस्थ’ शब्द की व्युत्पत्ति<br>
खूब तुमने समझायी, प्रियवर !<br><br>
एक बार मैंने कहा-<br>
‘‘बाबा, हम दूर से आयी आई हैं घाट पर,<br>
खाना बनाना है, मिल नहीं रही सूखी लकड़ी,<br>
आपके झोले में होगी ?<br>
कहते हैं लोग, आपके झोले में<br>
बसती है सृष्टि,<br>
दुनिया में ढूँढ़ढूंढ़-ढाँढ़करढांढ़कर<br>
आ जाते हैं सारे बेआसरा<br>
आपके पास,<br>
जो चीज और कहीं नहीं मिली,<br>
आपके झोले में तो रामजी ने<br>
अवश्य ही डाली होगी !’’<br>
बात शायद पूरी सुनी भी नहीं,<br>
एक हाथ से आप घिसते रहे चन्दन,<br>
जैसे थी लुटिया, आटा, बैंगन,<br>
धनिया, नमक की डली,<br>
एक-एक कर मैंने सब माँगींमांगीं<br>
दीं आपने सर उठाये बिना,<br>
जैसे औरों को दीं, मुझको भी !<br><br>
लौट रही हूँ वापस..खुद में ही<br>
मैं भी समेट रही हूँ खुद को<br><br>
अपने झोले में ही !<br>
अब निकलूँगी मैं भी<br>
अपने सन्धान संधान में अकेली !<br>आपका झोला हो आपको मुबारक !<br>अच्छा बाबा, राम-राम !
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