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| * [[जाने किस छल-पीड़ा से / सुमित्रानंदन पंत]] | | * [[जाने किस छल-पीड़ा से / सुमित्रानंदन पंत]] |
| * [[क्या मेरी आत्मा का चिर धन / सुमित्रानंदन पंत]] | | * [[क्या मेरी आत्मा का चिर धन / सुमित्रानंदन पंत]] |
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− | {{KKRachna
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− | |रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
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− | वन- वन उपवन<br>
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− | छाया उन्मन- उन्मन गुंजन<br>
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− | नव वय के अलियों का गुंजन !<br><br>
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− | रुपहले, सुनहले, आम्र, मौर,<br>
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− | नीले, पीले औ ताम्र भौंर,<br>
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− | रे गंध-गंध हो ठौर-ठौर<br>
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− | उड़ पाँति-पाँति में चिर उन्मन<br>
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− | करते मधु के वन में गुंजन !<br><br>
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− | वन के विटपों की डाल-डाल<br>
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− | कोमल कलियों से लाल-लाल,<br>
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− | फैली नव मधु की रूप ज्वाल,<br>
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− | जल-जल प्राणों के अलि उन्मन<br>
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− | करते स्पन्दन, भरते-गुंजन !<br><br>
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− | अब फैला फूलों में विकास,<br>
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− | मुकुलों के उर में मदिर वास,<br>
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− | अस्थिर सौरभ से मलय-श्वास,<br>
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− | जीवन-मधु-संचय को उन्मन<br>
| |
− | करते प्राणों के अलि गुंजन ! <br><br>
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− | (जनवरी, 1932)
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− | 1
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− | तप रे मधुर-मधुर मन !<br>
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− | विश्व वेदना में तप प्रतिपल,<br>
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− | जग-जीवन की ज्वाला में गल,<br>
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− | बन अकलुष, उज्जवल औ’ कोमल<br>
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− | तप रे विधुर-विधुर मन !<br><br>
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− | अपने सजल-स्वर्ण से पावन<br>
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− | रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम,<br>
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− | स्थापित कर जग में अपनापन;<br>
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− | ढल रे ढल आतुर मन !<br><br>
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− | तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन<br>
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− | गंध-हीन तू गंध-युक्त बन<br>
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− | निज अरूप में भर-स्वरूप, मन,<br>
| |
− | मूर्तिमान बन, निर्धन !<br>
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− | गल रे गल निष्ठुर मन ! <br><br>
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− | (जनवरी, 1932)
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− | 2
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− | शांत सरोवर का उर<br>
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− | किस इच्छ के लहरा कर<br>
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− | हो उठता चंचल, चंचल !<br><br>
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− | सोये वीणा के सुर<br>
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− | क्यों मधुर स्पर्श से मरमर्<br>
| |
− | बज उठते प्रतिपल, प्रतिपल !<br><br>
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− | आशा के लघु अंकुर<br>
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− | किस सुख से पर फड़का कर<br>
| |
− | फैलाते नव दल पर दल !<br><br>
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− | मानव का मन निष्ठुर<br>
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− | सहसा आँसू में झर-झर<br>
| |
− | क्यों जाता पिघल-पिघल गल !<br><br>
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− | मैं चिर उत्कंठातुर<br>
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− | जगती के अखिल चराचर<br>
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− | यों मौन-मुग्ध किसके बल ! <br><br>
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− | (फरवरी,1932)
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− | 3
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− | आते कैसे सूने पल<br>
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− | जीवन में ये सूने पल ?<br>
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− | जब लगता सब विश्रृंखल;<br>
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− | तृण, तरु, पृथ्वी, नभमंडल !<br><br>
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− | खो देती उर की वीणा<br>
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− | झंकार मधुर जीवन की,<br>
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− | बस साँसों के तारों में<br>
| |
− | सोती स्मृति सूनेपन की !<br><br>
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− | बह जाता बहने का सुख,<br>
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− | लहरों का कलरव, नर्तन,<br>
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− | बढ़ने की अति-इच्छा में<br>
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− | जाता जीवन से जीवन !<br><br>
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− | आत्मा है सरिता के भी<br>
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− | जिससे सरिता है सरिता;<br>
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− | जल-जल है, लहर-लहर रे,<br>
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− | गति-गति सृति-सृति चिर भरिता !<br><br>
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− | क्या यह जीवन ? सागर में<br>
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− | जल भार मुखर भर देना !<br>
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− | कुसुमित पुलिनों की कीड़ा-<br>
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− | ब्रीड़ा से तनिक ने लेना !<br><br>
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− | सागर संगम में है सुख,<br>
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− | जीवन की गति में भी लय,<br>
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− | मेरे क्षण-क्षण के लघु कण<br>
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− | जीवन लय से हों मधुमय <br><br>
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− | (जनवरी,1932)
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− | 4
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− | मैं नहीं चाहता चिर सुख,<br>
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− | मैं नहीं चाहता चिर दुख,<br>
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− | सुख दुख की खेल मिचौनी<br>
| |
− | खोले जीवन अपना मुख !<br><br>
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− | सुख-दुख के मधुर मिलन से<br>
| |
− | यह जीवन हो परिपूरण;<br>
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− | फिर घन में ओझल हो शशि,<br>
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− | फिर शशि से ओझल हो घन !<br><br>
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− | जग पीड़ित है अति दुख से<br>
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− | जग पीड़ित रे अति सुख से,<br>
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− | मानव जग में बँट जाएँ<br>
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− | दुख सुख से औ’ सुख दुख से !<br><br>
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− | अविरत दुख है उत्पीड़न,<br>
| |
− | अविरत सुख भी उत्पीड़न,<br>
| |
− | दुख-सुख की निशा-दिवा में,<br>
| |
− | सोता-जगता जग-जीवन।<br><br>
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− | यह साँझ-उषा का आँगन,<br>
| |
− | आलिंगन विरह-मिलन का;<br>
| |
− | चिर हास-अश्रुमय आनन<br>
| |
− | रे इस मानव-जीवन का ! <br><br>
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− | (फरवरी,1932)
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− | 5
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− | देखूँ सबके उर की डाली<br>
| |
− | किसने रे क्या-क्या चुने फूल<br>
| |
− | जग के छवि-उपवन से अकूल !<br>
| |
− | इसमें कलि, किसलय,कुसुम, शूल !<br><br>
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− |
| |
− | किस छवि, किस मधु के मधुर भाव ?<br>
| |
− | किस रँग, रस, रुचि से किसे चाव !<br>
| |
− | कवि से रे किसका क्या दुराव !<br><br>
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| |
− | किसने ली पिक की विरह तान ?<br>
| |
− | किसने मधुकर का मिलन गान ?<br>
| |
− | या फुल्ल कुसुम, या मुकुल म्लान ?<br>
| |
− | देखूँ सबके उर की डाली-<br><br>
| |
− |
| |
− | सब में कुछ सुख के तरुण फूल<br>
| |
− | सब में कुछ दुख के करुण शूल-<br>
| |
− | सुख-दुख न कोई सका भूल ? <br><br>
| |
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− | (फरवरी,1932)
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− | 6
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− | सागर की लहर लहर में<br>
| |
− | है हास स्वर्ण किरणों का,<br>
| |
− | सागर के अंतस्तन में<br>
| |
− | अवसाद अवाक् कणों का !<br><br>
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− | यह जीवन का है सागर,<br>
| |
− | जग-जीवन का है सागर,<br>
| |
− | प्रिय-प्रिय विषाद रे इसका<br>
| |
− | प्रिय प्रि’ आह्लाद रे इसका !<br><br>
| |
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− | जग जीवन में हैं सुख-दुख,<br>
| |
− | सुख-दुख में है जग जीवन;<br>
| |
− | हैं बँधे बिछोह-मिलन दो<br>
| |
− | देकर चिर स्नेहालिंगन !<br><br>
| |
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| |
− | जीवन की लहर-लहर से<br>
| |
− | हँस खेल-खेल रे नाविक !<br>
| |
− | जीवन के अंतस्तल में<br>
| |
− | नित बूड़-बूड़ रे भाविक ! <br><br>
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− | (फरवरी,1932)
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− | 7
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− | आँसू की आँखों से मिल<br>
| |
− | भर ही आते हैं लोचन,<br>
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− | हँसमुख ही से जीवन का<br>
| |
− | पर हो सकता अभिवादन !<br><br>
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− | अपने मधु में लिपटा पर<br>
| |
− | कर सकता मधुप न गुंजन,<br>
| |
− | करुणा से भारी अंतर<br>
| |
− | खो देता जीवन-कंपन<br><br>
| |
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| |
− | विश्वास चाहता है मन,<br>
| |
− | विश्वास पूर्ण जीवन पर;<br>
| |
− | सुख-दुख के पुलिन डुबा कर<br>
| |
− | लहराता जीवन-सागर !<br><br>
| |
− |
| |
− | दुख इस मानव-आत्मा का<br>
| |
− | रे नित का मधुमय-भोजन<br>
| |
− | दुख के तम को खा-खा कर<br>
| |
− | भरती प्रकाश से वह मन !<br><br>
| |
− |
| |
− | अस्थिर है जग का सुख-दुख<br>
| |
− | जीवन ही सत्य चिरंतन !<br>
| |
− | सुख-दुख से ऊपर; मन का<br>
| |
− | जीवन ही रे अवलंबन ! <br><br>
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− | (फरवरी,1932)
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− | 8
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− | कुसुमों के जीवन का पल<br>
| |
− | हँसता ही जग में देखा,<br>
| |
− | इन म्लान, मलिन अधरों पर<br>
| |
− | स्थिर रही न स्मिति की रेखा !<br><br>
| |
− |
| |
− | वन की सूनी डाली पर<br>
| |
− | सीखा कलि ने मुसकाना,<br>
| |
− | मैं सीख न पाया अब तक<br>
| |
− | सुख से दुख को अपनाना !<br><br>
| |
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− | काँटों से कुटिल भरी हो<br>
| |
− | यह जटिल जगत की डाली,<br>
| |
− | इसमें ही तो जीवन के<br>
| |
− | पल्लव की फूटी लाली !<br><br>
| |
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| |
− | अपनी डाली के काँटे<br>
| |
− | बेधते नहीं अपना तन<br>
| |
− | सोने-सा उज्जवल बनने<br>
| |
− | तपता नित प्राणों का धन !<br><br>
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− | दुख-दावा से नव अंकुर<br>
| |
− | पाता जग-जीवन का वन,<br>
| |
− | करुणार्द्र विश्व की गर्जन,<br>
| |
− | बरसाती नव जीवन-कण ! <br><br>
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− | (फरवरी,1932)
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− | 9
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− | जाने किस छल-पीड़ा से<br>
| |
− | व्याकुल-व्याकुल प्रतिपल मन,<br>
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− | ज्यों बरस-बरस पड़ने को<br>
| |
− | हों उमड़-उमड़ उठते घन !<br><br>
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− | अधरों पर मधुर अधर धर,<br>
| |
− | कहता मदु स्वर में जीवन-<br>
| |
− | बस एक मधुर इच्छा पर<br>
| |
− | अर्पित त्रिभुवन-यौवन-धन<br><br>
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− | पुलकों से लद जाता तन,<br>
| |
− | मुँद जाते मद से लोचन<br>
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− | तत्क्षण सचेत करता मन-<br>
| |
− | ना, मुझे इष्ट है साधन<br><br>
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− | इच्छा है जग का जीवन<br>
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− | पर साधन आत्मा का धन;<br>
| |
− | जीवन की इच्छा है छल<br>
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− | आत्मा का जीवन जीवन !<br><br>
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− | फिरतीं नीरव नयनों में<br>
| |
− | छाया-छबियाँ मन-मोहन<br>
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− | फिर-फिर विलीन होने को<br>
| |
− | ज्यों घिर-घिर उठते हों घन<br><br>
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− | ये आधी, अति इच्छाएँ<br>
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− | साधन भी बाधा बंधन;<br>
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− | साधन भी इच्छा ही है<br>
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− | सम-इच्छा ही रे साधन !<br><br>
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− | रह-रह मिथ्या-पीड़ा से<br>
| |
− | दुखता-दुखता मेरा मन<br>
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− | मिथ्या ही बतला देती<br>
| |
− | मिथ्या का रे मिथ्यापन ! <br><br>
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− | (फरवरी,1932)
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− | 10
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− | क्या मेरी आत्मा का चिर धन ?<br>
| |
− | मैं रहता नित उन्मन, उन्मन !<br><br>
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− | प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर,<br>
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− | तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर,<br>
| |
− | सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर;<br><br>
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− | निज सुख से ही चिर चंचल मन,<br>
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− | मैं हूँ प्रतिपल उन्मन, उन्मन।<br><br>
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− | मैं प्रेम उच्चादर्शों का,<br>
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− | संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शों का,<br>
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− | जीवन के हर्ष-विमर्षों का;<br><br>
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− | लगता अपूर्ण मानव-जीवन,<br>
| |
− | मैं इच्छा से उन्मन, उन्मन।<br><br>
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− | जग-जीवन में उल्लास मुझे,<br>
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− | नव आशा; नव अभिलाष मुझे;<br>
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− | ईश्वर पर चिर विश्वास मुझे;<br><br>
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− | चाहिए विश्व को नव जीवन<br>
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− | मैं आकुल रे उन्मन उन्मन !
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