भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से / गौतम राजरिशी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 27: पंक्ति 27:
 
रात भर आवाज देता है कोई उस पार से
 
रात भर आवाज देता है कोई उस पार से
  
{गर्भनाल, अंक 49}
+
{गर्भनाल, अंक 49 त्रैमासिक बया, अप्रैल-जून 2013}
 
</poem>
 
</poem>

01:14, 22 नवम्बर 2013 का अवतरण

चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से
गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से

मिट गया इक नौजवां कल फिर वतन के वास्ते
चीख तक उट्ठी नहीं इक भी किसी अखबार से

कितने दिन बीते कि हूँ मुस्तैद सरहद पर इधर
बाट जोहे है उधर माँ पिछले ही त्योहार से

अब शहीदों की चिताओं पर न मेले सजते हैं
है कहाँ फुरसत जरा भी लोगों को घर-बार से

मुट्ठियाँ भीचे हुये कितने दशक बीतेंगे और
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से

मुर्तियाँ बन रह गये वो चौक पर, चौराहे पर
खींच लाये थे जो किश्ती मुल्क की मझधार से

बैठता हूँ जब भी "गौतम" दुश्मनों की घात में
रात भर आवाज देता है कोई उस पार से

{गर्भनाल, अंक 49 त्रैमासिक बया, अप्रैल-जून 2013}