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"उलझाव का मज़ा भी तेरी बात ही में था / अज़ीज़ क़ैसी" के अवतरणों में अंतर

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साया किसी यक़ीं का भी जिस पर न पड़ सका,
 
साया किसी यक़ीं का भी जिस पर न पड़ सका,
वो घर भी शर-ए-दिल के मुज़ाफ़ात ही में था ।
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वो घर भी शहर-ए-दिल के मुज़ाफ़ात (पास में) ही में था ।
  
इलज़ाम क्या है ये भी न जाना तमसम उम्र,
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इलज़ाम क्या है ये भी न जाना तमाम उम्र,
मुल्जिम तमाम उम्र हवालत ही में था ।
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मुल्ज़िम तमाम उम्र हवालात ही में था ।
  
 
अब तो फ़क़त बदन की मुरव्वत है दरमियाँ,
 
अब तो फ़क़त बदन की मुरव्वत है दरमियाँ,
था रब्त जान-ओ-दिल का तो शुरूआत ही में था ।
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था रब्त (रिश्ता) जान-ओ-दिल का तो शुरूआत ही में था ।
  
 
मुझ को तो क़त्ल करके मनाता रहा है जश्न,
 
मुझ को तो क़त्ल करके मनाता रहा है जश्न,
वो ज़िलिहाज़ शख़्स मेरी ज़ात ही में था ।
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वो ज़िलिहाज़ (आदरणीय) शख़्स मेरी ज़ात ही में था ।
 
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18:53, 22 नवम्बर 2013 के समय का अवतरण

उलझाव का मज़ा भी तेरी बात ही में था ।
तेरा जवाब तेरे सवालात ही में था ।

साया किसी यक़ीं का भी जिस पर न पड़ सका,
वो घर भी शहर-ए-दिल के मुज़ाफ़ात (पास में) ही में था ।

इलज़ाम क्या है ये भी न जाना तमाम उम्र,
मुल्ज़िम तमाम उम्र हवालात ही में था ।

अब तो फ़क़त बदन की मुरव्वत है दरमियाँ,
था रब्त (रिश्ता) जान-ओ-दिल का तो शुरूआत ही में था ।

मुझ को तो क़त्ल करके मनाता रहा है जश्न,
वो ज़िलिहाज़ (आदरणीय) शख़्स मेरी ज़ात ही में था ।