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− | {{KKGlobal}}
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| {{KKRachna | | {{KKRachna |
| |रचनाकार=नरेश मेहता | | |रचनाकार=नरेश मेहता |
| }} | | }} |
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− | हमें जन्म देकर<br>
| + | {{KKPustak |
− | ओ पिता सूर्य !<br>
| + | |चित्र= Purush.jpg |
− | ओ माता सविता ! <br>
| + | |नाम=पुरुष |
− | क्या इसलिए तुम मार्तण्ड हो कि<br>
| + | |रचनाकार=[[नरेश मेहता]] |
− | अब तुम प्रकाश के अतिरिक्त<br>
| + | |प्रकाशक=भारतीय ज्ञानपीठ |
− | और कुछ भी नहीं जन्म दे सकते ?<br>
| + | |वर्ष= २००५ |
− | मैं जानता हूँ तुम वामन हो<br>
| + | |भाषा=हिन्दी |
− | पर हिरण्यगर्भ तो हो<br>
| + | |विषय=कविताएँ |
− | और हिरण्यगर्भ होने का तात्पर्य है<br>
| + | |शैली=-- |
− | युगनद्ध शिव होना<br>
| + | |पृष्ठ=71 |
− | पर लगता है उषा के सोम अभिषेक ने<br>
| + | |ISBN=-- |
− | तुम्हें सदा के लिए शम्भु बना दिया<br>
| + | |विविध=-- |
− | तुम शक्ति हो चुके हो।<br>
| + | }} |
− | पर शायद सृष्टि को जन्म देने के उपरान्त<br>
| + | |
− | उसके पालन के लिए तुम प्रकाशरूप<br>
| + | |
− | विष्णु हो।<br><br>
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− | | + | |
− | ओ पिता सूर्य !<br>
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− | हिरण्यगर्भ से वामन<br>
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− | और वामन से श्वेत वामन तारा बनने की<br>
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− | आकांक्षा में<br>
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− | ओ आदि हिरण्यगर्भ !<br>
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− | तुम ही महागणपति,<br>
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− | गणाधिपति कारणभूत महापिण्ड हो<br>
| + | |
− | तुम्हारा ही गण-वैभव रूप<br>
| + | |
− | तारों की मन्दाकिनियों, आकाशगंगाओं के रूप में<br>
| + | |
− | पराब्रह्माण्डों में व्याप्त है<br>
| + | |
− | जैसे आकारातीत सूँड़ में सारे तारों के गण<br>
| + | |
− | लिपटे पड़े हों<br>
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− | और तुम आनन्दभाव से सिहरित होकर<br>
| + | |
− | शाश्वत ओंकार नाद कर रहे हो<br>
| + | |
− | जिसे हमारी पृथिवी, आकाश ही नहीं<br>
| + | |
− | हम सब अपने स्तत्व में सुनते हैं<br>
| + | |
− | तुम्हें प्रणाम है।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | प्रत्येक अपने स्व का चक्र<br>
| + | |
− | प्रतिक्षण लगा रहा है<br>
| + | |
− | और इस गति की परम तेजी को<br>
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− | सामान्य भाव में नहीं देखा जा सकता<br>
| + | |
− | पर यह चन्द्रगति है<br>
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− | जिससे हमारे आकाश में प्रकम्पन उत्पन्न होता है<br>
| + | |
− | ताकि हमारी पृथिवी अपनी धुरी पर घूम सके<br>
| + | |
− | और धुरी-गति को स्वरूप मिल सके<br>
| + | |
− | यही धुरी-गति ही हमारी पृथिवी को<br>
| + | |
− | ऋतुमति बनाती है।<br>
| + | |
− | ऋतुमति धरती की यह ऋतुगति हमारे लिए<br>
| + | |
− | कितनी उत्सवरूपा है यह हम सब जानते हैं<br>
| + | |
− | पर शायद यह हम नहीं जानते कि<br>
| + | |
− | सूर्य हमारी इस पृथिवी को लेकर <br>
| + | |
− | और पृथिवी हमें लेकर<br>
| + | |
− | आकाशगंगा के केन्द्र की परिक्रमा पर<br>
| + | |
− | मन्वन्तर गति की गणनातीतता की ओर<br>
| + | |
− | भी धावित है<br>
| + | |
− | और क्या उस परायात्रा की हमें कोई प्रतीति है<br>
| + | |
− | कि हमारी नभगंगा अन्य मंदाकिनियों के साथ<br>
| + | |
− | अनावर्ती नक्षत्र-विस्तार की ब्रह्माण्डातीतता में <br>
| + | |
− | अपसर्पण गति ये यात्रा कर रही है ?<br>
| + | |
− | एक महाशेष नाग-यात्रा है<br>
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− | जिस पर जैविकता का विष्णु शेषाशायी है।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | वह-<br>
| + | |
− | जो सोया हुआ है<br>
| + | |
− | जाग भी रहा है अलख वही,<br>
| + | |
− | वह-<br>
| + | |
− | जो पुरुष है<br>
| + | |
− | अक्षतयोनि अपनी नारी भी है वही,<br>
| + | |
− | वह-<br>
| + | |
− | जो चिद्बिन्दु है<br>
| + | |
− | सारे प्रकाशों की<br>
| + | |
− | परम अन्धकार विराटता भी है वही,<br>
| + | |
− | वह-<br>
| + | |
− | जो शून्य है<br>
| + | |
− | समाहित हैं सारे संख्यातीत अंक वहीं,<br>
| + | |
− | वह-<br>
| + | |
− | जो अक्षर है<br>
| + | |
− | पद और अर्थ की सारी वर्णमाला भी है वही<br>
| + | |
− | वह-<br>
| + | |
− | जो परा अन्धकार है<br>
| + | |
− | सारे देश, सारे कालों के प्रकाश<br>
| + | |
− | नेत्र मूँदें हुए समाहित हैं वहीं।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | यहाँ <br>
| + | |
− | जहाँ न प्रकाश है, न अन्धकार है<br>
| + | |
− | जबकि प्रकाश भी है और अन्धकार भी है<br>
| + | |
− | इसे भाषा कैसे अभिव्यक्त करे, कि<br>
| + | |
− | ताली दो हाथों से ही नहीं<br>
| + | |
− | एक हाथ से भी बजती है।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | कोई ऐसा विश्वास करेगा कि<br>
| + | |
− | प्रकाश सुने जा सकते हैं<br>
| + | |
− | और ध्वनियाँ देखी जा सकती हैं<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | यहाँ इस परा अन्धकार में<br>
| + | |
− | अँधेरा अँधेरे को खोज रहा है।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | इन परा ज्योतियों में प्रकाश अन्धे हो गये हैं<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ब्रह्माण्ड के पराचुम्बकीय संकर्षण क्षेत्र<br>
| + | |
− | की महाज्योतियों का अत्यन्त नगण्य आलोक है<br>
| + | |
− | जो हम तक प्रकाश रूप में आता है।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | प्रकाश भी लय है।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ब्रह्माण्डीय किरणों के सप्तवर्णी रंगमण्डल<br>
| + | |
− | वह<br>
| + | |
− | हाँ वह, जो युगनद्ध है<br>
| + | |
− | अर्धनारीश्वर है<br>
| + | |
− | जड़, चेतन औ गति की सघनतम युति के साथ<br>
| + | |
− | अपनी योगमाया में अवस्थित है।<br>
| + | |
− | वह महाशव<br>
| + | |
− | चिद्शक्ति के लास्य स्पर्श की प्रतीक्षा में<br>
| + | |
− | गणनातीत काल-यात्रा सम्पन्न कर निश्चेष्ट है।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | सोने दो<br>
| + | |
− | महाशव बने इस चिद्बिन्दु को सोने दो।<br>
| + | |
− | ब्रह्माण्डों की पराविस्तृति में<br>
| + | |
− | कहीं भी, किसी में भी<br>
| + | |
− | न कहीं सूर्यों के भी सूर्य वाले तारे हैं<br>
| + | |
− | न कहीं नभगंगाएँ हैं<br>
| + | |
− | और न कहीं नक्षत्रमालिकाएँ ।<br>
| + | |
− | सारे प्रकाशों की मृत्यु हो चुकी है<br>
| + | |
− | सारी ध्वनियाँ पथरा चुकी हैं<br>
| + | |
− | महाकाल के इस पराकृष्णगर्त में<br>
| + | |
− | सारे व्योमकेशी देश और काल<br>
| + | |
− | नामहीन, आयुहीन, परिचितिहीन बन कर<br>
| + | |
− | न जाने कहाँ<br>
| + | |
− | न जाने किस देश और काल में बिला गये हैं।<br>
| + | |
− | अब केवल अन्धकार<br>
| + | |
− | परा अन्धकार<br>
| + | |
− | नहीं, परात्पर अन्धकार की ही सत्ता है<br>
| + | |
− | पराविराट परात्पर बिन्दु बना लेटा है<br>
| + | |
− | सोने दो<br>
| + | |
− | महाछन्द के इस गोलक को सोने दो।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | जैसे ही सोने के लिए बत्ती बुझाई<br>
| + | |
− | और अँधेरा हुआ तो<br>
| + | |
− | सहसा पूरा दिन भी लौट आया<br>
| + | |
− | जैसे उसे घर लौटने में थोड़ी देर हो गयी थी<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | और वह सिर झुकाये अपराध भाव से खड़ा था।<br>
| + | |
− | पूरे दिन की घटनाएँ भी<br>
| + | |
− | खिलौने थामे बच्चों सी आ खड़ी हुईं।<br>
| + | |
− | उन्हें खेल-खेल में ध्यान ही नहीं रहा कि<br>
| + | |
− | इतनी रात हो गयी है<br>
| + | |
− | और घर भी लौटना है।<br>
| + | |
− | मैं उन सबको कुछ कहना चाहता था<br>
| + | |
− | पर सब केवल थके ही नहीं लग रहे थे<br>
| + | |
− | बल्कि उनकी आँखों में नींद घिरी पड़ रही थी<br>
| + | |
− | और मैंने हँसते हुए अपने में समेटा और सो गया।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | आकाश के चरखे पर<br>
| + | |
− | बादलों की पूनियाँ काती जा रही हैं।<br>
| + | |
− | देखते नहीं<br>
| + | |
− | यह प्रभु नहीं<br>
| + | |
− | प्रभु की परात्परता है।<br>
| + | |
− | देखते नहीं<br>
| + | |
− | यह मूर्ति नहीं, लिंग है<br>
| + | |
− | जिसका पूजन नहीं अभिषेक किया जाता है।<br>
| + | |
− | जो स्वयं भी<br>
| + | |
− | सत्, रज, तम का बिल्वपत्र है<br>
| + | |
− | त्रिकाल ही जिसका त्रिपुण्ड है<br>
| + | |
− | सृष्टि की परागतियाँ जिसके कण्ठ में नाग हैं<br>
| + | |
− | जो महायोनि में अवस्थित होकर अट्टहास कर रहा है<br>
| + | |
− | पर अभी वह केवल पिण्ड है<br>
| + | |
− | चिद्बिन्दु है।<br>
| + | |
− | देखते नहीं<br>
| + | |
− | इस योगमाया निद्रा में<br>
| + | |
− | केवल प्रलय का अधिकार<br>
| + | |
− | पार्षद बना जाग रहा है।<br>
| + | |
− | सारे प्रकाशों पर आरूढ़<br>
| + | |
− | यह नामहीन, रूपहीन प्रलय का पार्षद ही<br>
| + | |
− | जाग रहा है।<br>
| + | |
− | किसी की भी कोई सत्ता नहीं<br>
| + | |
− | केवल वह चिद्बिन्दु ही है,<br>
| + | |
− | लेकिन कहाँ ?<br>
| + | |
− | जब कोई देश और काल ही नहीं है<br>
| + | |
− | तब यह कहाँ, क्या !!<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | महाशून्य के कृष्ण के चारों ओर<br>
| + | |
− | अनन्त नभगंगाओं, तारा-मण्डलों की गोपिकाएँ<br>
| + | |
− | ज्योति का महारास कर रही हैं<br><br>
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− | | + | |
− | प्रकाश के सप्त सोपान ही सप्त आकाश हैं।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | कौन अपनी परासंकर्षण शक्ति से<br>
| + | |
− | प्रकाश-अश्वों की महागतियों पर वल्गा लगा देता है ?<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | कौन परासंकर्षण का जाल फेंक कर<br>
| + | |
− | प्रकाश और ज्योतियों की मछलियों को समेट रहा है ?<br><br>
| + | |
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− | कृष्णगर्त सारे प्रकाशों और ज्योतियों को पी डाल रहा है<br>
| + | * [[पुरुष (कविता) / नरेश मेहता]] |
− | कृष्णगर्त के इस महाराक्षस के उदर-विविर में समा कर<br>
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− | गणनातीत वर्षों के बाद<br>
| + | |
− | ये प्रकाश, ज्योतियाँ, ध्वनियाँ<br>
| + | |
− | किस ब्रह्माण्ड में<br>
| + | |
− | भूत या भविष्य के किस काल में कब मुक्त होंगी<br>
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− | यह कौन जानता है ?<br>
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