भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दहेज / विमल राजस्थानी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमल राजस्थानी |संग्रह=इन्द्रधन...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

09:30, 29 नवम्बर 2013 के समय का अवतरण

गरीब बाप, बेटियाँ जवान हो गयीं
नींद नहीं आँखों में
थकन भरी पाँखों मे
बेटियाँ हैं ऐसी कि
मिले नहीं लाखों में
सारी रात गिनता है तारे
ठठरी भर देह रही-
चिन्ता के मारे
दर-दर है भटक रहा
अधर बीच अटक रहा
पत्थर ही पत्थर हैं
व्यर्थ शीश पटक रहा
भटका है कई द्वार
‘माँगों’ की मिली मार
कैसे बचेगी लाज
अब गिरी तब गिरी गाज
असमय ही कमर झुकी
पड़ा हुआ! औंधे मुँह, बेबस निढ़ाल
हाय रे हाय! यह दहेज या कि काल
झुकी कमर जैसे कमान हो गयी।