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17:30, 7 जनवरी 2014 के समय का अवतरण
आँखों आँखों जगी प्रतीक्षा
आधे बन्द किवाड़ों पर
दिन खाई में धँसा-धँसा
दिनमान चमकता ताड़ों पर।
सूरत, तपे हुए सोने-सी
बातें, फूलों के सौरभ में
पलक बन्द कर
मुँह धोने की,
उठी हथेली हरी
हिल रही
सूखे हुए उजाड़ों पर।
मन, सपनों के राजमहल-सा
भीतर-बाहर सम्मोहन का,
जादू चलता
हल्का-हल्का,
भौंहे तनी
कमान-तीर-सी
रंक और रजवाड़ों पर।
प्यार कि जैसे धूप शरद की
निकली, खिली, हो गई ओझल
अधर-अधर पर
अँगुली रख दी,
अंधकार का
वही धुंधलका
फैला नदी-कछारों पर।