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17:30, 7 जनवरी 2014 के समय का अवतरण
भरी आँखें
थरथराये ओंठ
हिलता रह गया रूमाल!
नहीं फेरी पीठ, चलता रहा-
चलता रहा
लम्बी रेत के उस पार-
पानी, हर किसी ने कहा
पड़ गए छाले
न बीता
यह अनोखा ढाल।
गले लगकर लिपट कर
तुमने कहा था-फूल लाना,
ढल रही अब साँझ
संभव हो चला है मुँह छिपाना,
नदी में नावें
बिछाने लगी होंगी
जाल।
शाल कंधों से हटाना
खोलना बाँहें,
वापसी की यात्रायें
थपकियाँ चाहें,
प्यार की वह-
देह थी
यह प्यार का कंकाल।