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17:34, 7 जनवरी 2014 के समय का अवतरण
झूल रहे आँखों में
टेढ़े-
टेढ़े चिह्न सवाल के।
ये तितली के पंख पकड़ते-
दिन, कितने बच्चे हैं,
अलस्सुबह के सपनों जैसे
झूठे भी सच्चे हैं,
लंगड़ाते फिर भी चलते
कायल हैं अपनी चाल के।
वीराने में खिले फूल-सा
मन का हर कोना है
ठहरी धार-कटी हलचल में
उनका ही होना है।
छिन बाँयें छिन दाँयें जिनके
हिलें छोर रूमाल के।