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17:35, 7 जनवरी 2014 के समय का अवतरण
आम हुए श्रीमान
कलँगी चमकी बौर की।
हर अँखुआ
हँसने को
बेबस बेचैन हुआ,
सोच रहा आदमी
मौसम क्यों-
मैं न हुआ?
कब आएगी अपनी
यह तो बारी और की।
धन खेतों में
न हँसे
पान के बरेजों में,
जेबों में जिए
कभी
गलतियों गुरेजों में,
फागों बिन होली
बिन रागों गनगौर की।
नदियों के नाम
मिले
रेत के उलाहने,
पानी के अर्थ खुले
बूँदों के सामने,
ऋतुएँ तो ले आतीं
बातें हर दौर की।