भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"वार्ता:उत्तमराव क्षीरसागर" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
|
|
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) |
पंक्ति 5: |
पंक्ति 5: |
| |संग्रह= | | |संग्रह= |
| }}{{KKCatKavita}} | | }}{{KKCatKavita}} |
− | <poem>उफनती नदी के ख़्वाब में
| |
− | आती हैं
| |
− | कभी, तटासीन आबाद बस्तियाँ
| |
− | तो कभी
| |
− | तीर्थों के गगनचुंबी कलस और
| |
− | तरूवरों की लम्बी क़तारें
| |
− | लेकिन
| |
− | जब-जब भी उमड़ पड़ा है उफान
| |
− | तैरकर बचती निकल आई हैं बस्तियाँ।
| |
− | वहाँ के बासिंदों की फ़ितरत में
| |
− | शामिल होता रहा है गहरे पानी का कटाक्ष
| |
− | वे पार करते रहे हैं कई-कई सैलाब
| |
− | अपने हौसलों के आर-पार
| |
− |
| |
− | जब-जब भी झाँकती है नदी
| |
− | अपनी हद से बाहर
| |
− | निकलकर दूर जा बसते रहे हैं देवता
| |
− | और लौटते रहे हैं तीर्थयात्रियों के संग-संग
| |
− | वापस अपने धाम तक
| |
− | भक्तों की प्रार्थना सुनने के लिए।
| |
− | बाँचते रहे हैं शंख और घड़ियाल
| |
− | दीन-दुखियों की अर्जियाँ
| |
− |
| |
− | जब-जब भी कगारों को
| |
− | टटोलती है जलजिह्वा
| |
− | निहत्थी समर्पित होती रही हैं जड़ें
| |
− | जंगल के जंगल बहते गए
| |
− | फिर भी बीज उगाते रहे हैं
| |
− | क़तारों पे क़तारें फिर से
| |
− | दो क़दम पीछे ही सही
| |
− | फिर से खड़ी होती रही हैं
| |
− | तरूवरों की संतानें</poem>
| |
22:04, 30 जनवरी 2014 के समय का अवतरण