भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मैं क्यों प्यार किया करता हूँ? / गोपालदास "नीरज"" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोपालदास "नीरज" |अनुवादक= |संग्रह=ग...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
{{KKCatGeet}}
 
{{KKCatGeet}}
 
<poem>
 
<poem>
अब तो मुझे न और रुलाओ!
+
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?
  
रोते-रोते आँखें सूखीं,
+
सर्वस देकर मौन रुदन का क्यों व्यापार किया करता हूँ?
हृदय-कमल की पाँखें सूखीं,
+
भूल सकूँ जग की दुर्घातें उसकी स्मृति में खोकर ही
मेरे मरु-से जीवन में तुम मत अब सरस सुधा बरसाओ!
+
जीवन का कल्मष धो डालूँ अपने नयनों से रोकर ही
अब तो मुझे न और रुलाओ!
+
इसीलिए तो उर-अरमानों को मैं छार किया करता हूँ।
 +
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?
  
मुझे न जीवन की अभिलाषा,
+
कहता जग पागल मुझसे, पर पागलपन मेरा मधुप्याला
मुझे न तुमसे कुछ भी आशा,
+
अश्रु-धार है मेरी मदिरा, उर-ज्वाला मेरी मधुशाला
मेरी इन तन्द्रिल पलकों पर मत स्वप्निल संसार सजाओ!
+
इससे जग की मधुशाला का मैं परिहार किया करता हूँ।
अब तो मुझे न और रुलाओ!
+
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?
  
अब नयनों में तम-सी काली,
+
कर ले जग मुझसे मन की पर, मैं अपनेपन में दीवाना
झलक रही मदिरा की लाली,
+
चिन्ता करता नहीं दु:खों की, मैं जलने वाला परवाना
जीवन की संध्या आई है, मत आशा के दीप जलाओ!
+
अरे! इसी से सारपूर्ण-जीवन निस्सार किया करता हूँ।
अब तो मुझे न और रुलाओ!
+
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?
 +
 
 +
उसके बन्धन में बँध कर ही दो क्षण जीवन का सुख पा लूँ
 +
और न उच्छृंखल हो पाऊँ, मानस-सागर को मथ डालूँ
 +
इसीलिए तो प्रणय-बन्धनों का सत्कार किया करता हूँ।
 +
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?
 
</poem>
 
</poem>

12:13, 11 मार्च 2014 के समय का अवतरण

मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?

सर्वस देकर मौन रुदन का क्यों व्यापार किया करता हूँ?
भूल सकूँ जग की दुर्घातें उसकी स्मृति में खोकर ही
जीवन का कल्मष धो डालूँ अपने नयनों से रोकर ही
इसीलिए तो उर-अरमानों को मैं छार किया करता हूँ।
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?

कहता जग पागल मुझसे, पर पागलपन मेरा मधुप्याला
अश्रु-धार है मेरी मदिरा, उर-ज्वाला मेरी मधुशाला
इससे जग की मधुशाला का मैं परिहार किया करता हूँ।
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?

कर ले जग मुझसे मन की पर, मैं अपनेपन में दीवाना
चिन्ता करता नहीं दु:खों की, मैं जलने वाला परवाना
अरे! इसी से सारपूर्ण-जीवन निस्सार किया करता हूँ।
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?

उसके बन्धन में बँध कर ही दो क्षण जीवन का सुख पा लूँ
और न उच्छृंखल हो पाऊँ, मानस-सागर को मथ डालूँ
इसीलिए तो प्रणय-बन्धनों का सत्कार किया करता हूँ।
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?