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"सिर और सेहरा / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर

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सोच लो, जी में समझ लो, सब दिनों।
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यों लटकती है नहीं मोती-लड़ी।
 
यों लटकती है नहीं मोती-लड़ी।
 
 
जब कि तुम पर सिरसजा सेहरा बँधा।
 
जब कि तुम पर सिरसजा सेहरा बँधा।
 
 
मुँह छिपाने की तुम्हें तब क्या पड़ी।
 
मुँह छिपाने की तुम्हें तब क्या पड़ी।
  
 
ला न दें सुख में कहीं दुख की घड़ी।
 
ला न दें सुख में कहीं दुख की घड़ी।
 
 
ढा न दें कोई सितम आँखें गड़ी।
 
ढा न दें कोई सितम आँखें गड़ी।
 
 
मौर बँधाते ही इसी से सिर तुम्हें।
 
मौर बँधाते ही इसी से सिर तुम्हें।
 
 
देखता हूँ मुँह छिपाने की पड़ी।
 
देखता हूँ मुँह छिपाने की पड़ी।
  
 
अनसुहाती रंगतें मुँह की छिपा।
 
अनसुहाती रंगतें मुँह की छिपा।
 
 
सिर! रहें रखती तुम्हारी बरतरी।
 
सिर! रहें रखती तुम्हारी बरतरी।
 
 
इस लिए ही हैं लटक उस पर पड़ी।
 
इस लिए ही हैं लटक उस पर पड़ी।
 
 
मौर की लड़ियाँ खिले फूलों भरी।
 
मौर की लड़ियाँ खिले फूलों भरी।
  
 
पाजियों के जब बने साथी रहे।
 
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जब बुरों के काम भी तुम से सधे।
जब बुरों के काम भी तुम से सधो।
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क्या हुआ सिरमौर तो सब के बने।
 
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क्या हुआ सिर! मौर सोने का बँधे।
क्या हुआ सिर! मौर सोने का बँधो।
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01:01, 19 मार्च 2014 के समय का अवतरण

सोच लो, जी में समझ लो, सब दिनों।
यों लटकती है नहीं मोती-लड़ी।
जब कि तुम पर सिरसजा सेहरा बँधा।
मुँह छिपाने की तुम्हें तब क्या पड़ी।

ला न दें सुख में कहीं दुख की घड़ी।
ढा न दें कोई सितम आँखें गड़ी।
मौर बँधाते ही इसी से सिर तुम्हें।
देखता हूँ मुँह छिपाने की पड़ी।

अनसुहाती रंगतें मुँह की छिपा।
सिर! रहें रखती तुम्हारी बरतरी।
इस लिए ही हैं लटक उस पर पड़ी।
मौर की लड़ियाँ खिले फूलों भरी।

पाजियों के जब बने साथी रहे।
जब बुरों के काम भी तुम से सधे।
क्या हुआ सिरमौर तो सब के बने।
क्या हुआ सिर! मौर सोने का बँधे।