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मेल जोल / हरिऔध

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<poem>
तो कहेंगे मिलाप परदे में। 
है बुरी मौत की हुई संगत।
 
रंग बदरंग कर हमारा दे।
 
जो किसी मेल जोल की रंगत।
लाख उनको रहें मिलाते हम।
 
हैं न बेमेल मन मिले रहते।
 
है मुलम्मा किया हुआ जिस पर।
 
मेल उस मेल को नहीं कहते।
प्यार कहला कर किसी का प्यार क्यों।
 
काम हित जड़ के लिए दे तेल का।
 
जो हमें बेमोल करता ही रहे।
 वु+छ कुछ नहीं है मोल ऐसे मेल का।
मिल गये पर चाहिए फटना नहीं।
 
तो परस्पर हों निछावर जो हिलें।
कुछ न फल है दूध काँजी सा मिले।
जो मिलें तो दूध जल जैसा मिलें।
वु+छ न फल है दूधा काँजी सा मिले। जो मिलें तो दूधा जल जैसा मिलें। एक रंगत में न रँग रंग पाई अगर। 
साथ दो कलियाँ खिलीं, तो क्या खिलीं।
 
जब मिलाने से नहीं मिल मन सका।
 
तब मिलीं दो जातियाँ तो क्या मिलीं।
वह न खेला जाय जिस में हो कपट।
 
क्यों न कितना ही निराला खेल हो।
 कल्ह कल् मिलते आज मिट्टी में मिले। 
जो न मालामाल हित से मेल हो।
तात जल जो मिलन-लता का है।
 
और है जो कि हित-कमल पाला।
 मेल उस मेल को कहें वै+से।कैसे।
है न जो प्यार-बेलि का थाला।
हाथ धो बैठें धारम धरम से किस लिए। 
मुँह हमारे क्यों सहम करके सिलें।
 
ला मुसीबत माल पर पामाल हो।
 
धूल में क्यों मेल के नाते मिलें।
क्यों मलामत हम करें उस की नहीं।
 
मेल कर बेमैल जो होवे न मन।
 
जो हमें मेली दिये जैसा मिले।
 
हो फतिंगे के मिलन सा जो मिलन।
धूल में जाय मिल मिलन वह जो।
 
मसलहत का महँग मसाला हो।
 
प्यार जो प्यार मतलबों का हो।
 
मेल जो मेल जोल वाला हो।
है भला मेल मेल वालों का।
 
जल गया बल गया चला बल क्या।
 
एक बेमेल बेदहल लौ से।
 
मेल कर तेल को मिला फल क्या।
है बुरा बरबादियों का है सगा।
 
बैर जो हो प्रीति-पागों में पगा।
 
प्यार-परदे में परायापन छिपा।
 
मैल जी का मेल रंगत में रँगा।
मिल, न उसको क्यों मुसीबत की कहें।
 
जो मिलन लेने न देवे कल हमें।
 
बेतरह जो मुँह मुरौअत का मले।
 
दे गिरा जो मेल मुँह के बल हमें।
किस तरह से हम मिलन उसको कहें।
 
जो कि दो बेमेल मन का खेल हो।
 
क्यों न वह होगा मलालों से भरा।
 
मामलों के ही लिए जो मेल हो।
मतलबों की मलाल की जिस पर।
 
है जमी एक एक मोटी तह।
 
हम उसे कह मिलन नहीं सकते।
 
है न वह मेल है मिलाप न वह।
</poem>
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