"चार जाति / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर
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− | + | जो अजब जोत था जगा देता। | |
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जाति में जाति के बसेरे में। | जाति में जाति के बसेरे में। | ||
− | + | देवता जो कि हैं धरातल का। | |
− | देवता जो कि हैं | + | क्यों पड़ा है वही अँधेरे में। |
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− | क्यों पड़ा है वही | + | |
जो वहाँ अपना गिराती थी लहू। | जो वहाँ अपना गिराती थी लहू। | ||
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जाति का गिरता पसीना था जहाँ। | जाति का गिरता पसीना था जहाँ। | ||
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अब दिखा पड़ती सपूती वह नहीं। | अब दिखा पड़ती सपूती वह नहीं। | ||
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इन दिनों वह राजपूती है कहाँ। | इन दिनों वह राजपूती है कहाँ। | ||
जो बसा जाति को रही बसती। | जो बसा जाति को रही बसती। | ||
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देस में बाढ़ बीज जो बोवे। | देस में बाढ़ बीज जो बोवे। | ||
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बेंच कर नाम बेबसों सा बन। | बेंच कर नाम बेबसों सा बन। | ||
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बैस वह बैस किस लिए खोवे। | बैस वह बैस किस लिए खोवे। | ||
जिस जगह काँटा मिला बिखरा हुआ। | जिस जगह काँटा मिला बिखरा हुआ। | ||
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निज कलेजा थे बिछा देते वहाँ। | निज कलेजा थे बिछा देते वहाँ। | ||
− | |||
जो कि सेवा पर निछावर हो गये। | जो कि सेवा पर निछावर हो गये। | ||
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आज दिन वे जाति - सेवक हैं कहाँ। | आज दिन वे जाति - सेवक हैं कहाँ। | ||
काँपता और थरथराता है। | काँपता और थरथराता है। | ||
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है फिसलता कभी कभी, छिंकता। | है फिसलता कभी कभी, छिंकता। | ||
− | + | तब भला जाति हो खड़ी कैसे। | |
− | तब भला जाति हो खड़ी | + | |
− | + | ||
जब कि है पाँव ही नहीं टिकता। | जब कि है पाँव ही नहीं टिकता। | ||
− | + | कुछ अजब है नहीं, हमें रोटी। | |
− | + | ||
पेट भर आज जो नहीं मिलती। | पेट भर आज जो नहीं मिलती। | ||
− | |||
तब भला किस तरह कमाई हो। | तब भला किस तरह कमाई हो। | ||
− | |||
जाति की जाँघ जब कि है हिलती। | जाति की जाँघ जब कि है हिलती। | ||
− | खुल सकें तो भला खुलें | + | खुल सकें तो भला खुलें कैसे। |
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बेहतरी की रुकी हुई राहें। | बेहतरी की रुकी हुई राहें। | ||
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जाति को किस तरह निबाहें तब। | जाति को किस तरह निबाहें तब। | ||
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जब कि बेकार हो गईं बाँहें। | जब कि बेकार हो गईं बाँहें। | ||
बात न्यारी बहुत ठिकाने की। | बात न्यारी बहुत ठिकाने की। | ||
− | |||
दूर की सोच किस तरह पावे। | दूर की सोच किस तरह पावे। | ||
− | + | किस तरह जाति तब न कूर बने। | |
− | किस तरह जाति तब न | + | |
− | + | ||
जब कि सिर चूर चूर हो जावे। | जब कि सिर चूर चूर हो जावे। | ||
क्यों न पड़ जाँय तब रगें ढीली। | क्यों न पड़ जाँय तब रगें ढीली। | ||
− | |||
क्यों भला सिर न घूम जाता हो। | क्यों भला सिर न घूम जाता हो। | ||
− | + | तब भला जाति - तन पले कैसे। | |
− | तब भला जाति - तन पले | + | |
− | + | ||
जब कि मुँह में न अन्न जाता हो। | जब कि मुँह में न अन्न जाता हो। | ||
− | क्यों न | + | क्यों न बहके सब सहे बिगड़े बहुत। |
− | + | ||
क्यों नहीं सरबस गँवा जीते मरे। | क्यों नहीं सरबस गँवा जीते मरे। | ||
− | |||
किस तरह से जाति तब सँभले भला। | किस तरह से जाति तब सँभले भला। | ||
− | |||
बात बे-सिर-पैर की जब सिर करे। | बात बे-सिर-पैर की जब सिर करे। | ||
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19:31, 23 मार्च 2014 के समय का अवतरण
जो अजब जोत था जगा देता।
जाति में जाति के बसेरे में।
देवता जो कि हैं धरातल का।
क्यों पड़ा है वही अँधेरे में।
जो वहाँ अपना गिराती थी लहू।
जाति का गिरता पसीना था जहाँ।
अब दिखा पड़ती सपूती वह नहीं।
इन दिनों वह राजपूती है कहाँ।
जो बसा जाति को रही बसती।
देस में बाढ़ बीज जो बोवे।
बेंच कर नाम बेबसों सा बन।
बैस वह बैस किस लिए खोवे।
जिस जगह काँटा मिला बिखरा हुआ।
निज कलेजा थे बिछा देते वहाँ।
जो कि सेवा पर निछावर हो गये।
आज दिन वे जाति - सेवक हैं कहाँ।
काँपता और थरथराता है।
है फिसलता कभी कभी, छिंकता।
तब भला जाति हो खड़ी कैसे।
जब कि है पाँव ही नहीं टिकता।
कुछ अजब है नहीं, हमें रोटी।
पेट भर आज जो नहीं मिलती।
तब भला किस तरह कमाई हो।
जाति की जाँघ जब कि है हिलती।
खुल सकें तो भला खुलें कैसे।
बेहतरी की रुकी हुई राहें।
जाति को किस तरह निबाहें तब।
जब कि बेकार हो गईं बाँहें।
बात न्यारी बहुत ठिकाने की।
दूर की सोच किस तरह पावे।
किस तरह जाति तब न कूर बने।
जब कि सिर चूर चूर हो जावे।
क्यों न पड़ जाँय तब रगें ढीली।
क्यों भला सिर न घूम जाता हो।
तब भला जाति - तन पले कैसे।
जब कि मुँह में न अन्न जाता हो।
क्यों न बहके सब सहे बिगड़े बहुत।
क्यों नहीं सरबस गँवा जीते मरे।
किस तरह से जाति तब सँभले भला।
बात बे-सिर-पैर की जब सिर करे।