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"जातिसेवा / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर

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काम मुँह देख देख कर न करे।
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मुँह किसी और का कभी न तके।
 
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जातिसेवा करे अथक बन कर।
 
जातिसेवा करे अथक बन कर।
 
 
न थके आप औ न हाथ थके।
 
न थके आप औ न हाथ थके।
  
 
हो भला, वह हो भलाई से भरा।
 
हो भला, वह हो भलाई से भरा।
 
 
भाव जो जी में जगाने से जगे।
 
भाव जो जी में जगाने से जगे।
 
 
जातिहित, जनहित, जगतहित में उमग।
 
जातिहित, जनहित, जगतहित में उमग।
 
 
जी लगायें जो लगाने से लगे।
 
जी लगायें जो लगाने से लगे।
  
 
कौन ऐसा भला कलेवा है।
 
कौन ऐसा भला कलेवा है।
 
 
वह भली है अमोल मेवा से।
 
वह भली है अमोल मेवा से।
 
 
फेर में पड़ न जाय जन कोई।
 
फेर में पड़ न जाय जन कोई।
 
 
फिर न जी जाये जाति - सेवा से।
 
फिर न जी जाये जाति - सेवा से।
  
 
नाम सेवा का न वे लें भूल कर।
 
नाम सेवा का न वे लें भूल कर।
 
 
देख दुख जिन के न दिल हों हिलगये।
 
देख दुख जिन के न दिल हों हिलगये।
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बोझ उन पर रख बनें अंधे नहीं।
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बेतरह कंधे अगर हों छिल गये।
  
बोझ उन पर रख बनें अंधो नहीं।
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जाति - हित में ललक लगें कैसे।
 
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बेतरह कंधो अगर हों छिल गये।
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जाति - हित में ललक लगें वै+से।
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ले लुभा जब कि लाभ सा मेवा।
 
ले लुभा जब कि लाभ सा मेवा।
 
 
जब कि आराम में रमा मन है।
 
जब कि आराम में रमा मन है।
 
 
हो सकेगी न लोक की सेवा।
 
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नींव है वह बेहतरी - दीवार की।
 
नींव है वह बेहतरी - दीवार की।
 
 
है सहज सुख - हार की सुन्दर लड़ी।
 
है सहज सुख - हार की सुन्दर लड़ी।
 
 
है जगत को जीत लेने की कला।
 
है जगत को जीत लेने की कला।
 
 
जाति - सेवा जाति-हित की है जड़ी।
 
जाति - सेवा जाति-हित की है जड़ी।
  
 
जो रहेगा जाति - हित पौधा हरा।
 
जो रहेगा जाति - हित पौधा हरा।
 
 
तो हरा मुख रख, सकेंगे रह भले।
 
तो हरा मुख रख, सकेंगे रह भले।
 
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हम सकेंगे हर तरह से फूल फल।
हम सवें+गे हर तरह से फूल फल।
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देस - सेवा - बेलि के फूले फले।
 
देस - सेवा - बेलि के फूले फले।
  
 
गेह की क्या, देह की सुधा भी गँवा।
 
गेह की क्या, देह की सुधा भी गँवा।
 
 
भूल जाना, जो पड़े मरना मरें।
 
भूल जाना, जो पड़े मरना मरें।
 
 
खा सकें या खा सकें मेवा नहीं।
 
खा सकें या खा सकें मेवा नहीं।
 
 
लोग सेवा के लिए सेवा करें।
 
लोग सेवा के लिए सेवा करें।
 
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16:16, 24 मार्च 2014 के समय का अवतरण

काम मुँह देख देख कर न करे।
मुँह किसी और का कभी न तके।
जातिसेवा करे अथक बन कर।
न थके आप औ न हाथ थके।

हो भला, वह हो भलाई से भरा।
भाव जो जी में जगाने से जगे।
जातिहित, जनहित, जगतहित में उमग।
जी लगायें जो लगाने से लगे।

कौन ऐसा भला कलेवा है।
वह भली है अमोल मेवा से।
फेर में पड़ न जाय जन कोई।
फिर न जी जाये जाति - सेवा से।

नाम सेवा का न वे लें भूल कर।
देख दुख जिन के न दिल हों हिलगये।
बोझ उन पर रख बनें अंधे नहीं।
बेतरह कंधे अगर हों छिल गये।

जाति - हित में ललक लगें कैसे।
ले लुभा जब कि लाभ सा मेवा।
जब कि आराम में रमा मन है।
हो सकेगी न लोक की सेवा।

नींव है वह बेहतरी - दीवार की।
है सहज सुख - हार की सुन्दर लड़ी।
है जगत को जीत लेने की कला।
जाति - सेवा जाति-हित की है जड़ी।

जो रहेगा जाति - हित पौधा हरा।
तो हरा मुख रख, सकेंगे रह भले।
हम सकेंगे हर तरह से फूल फल।
देस - सेवा - बेलि के फूले फले।

गेह की क्या, देह की सुधा भी गँवा।
भूल जाना, जो पड़े मरना मरें।
खा सकें या खा सकें मेवा नहीं।
लोग सेवा के लिए सेवा करें।