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"प्रेम को मनकों सा फेरता मन-२ / सुमन केशरी" के अवतरणों में अंतर

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16:57, 31 मार्च 2014 के समय का अवतरण

कभी कभी लगता है
तुम्हारे मन में
उसी तरह उतरूँ
जैसे उतरती हैं वर्षा की बूंदें
रिस रिस कर ढूहों के अंतर्तल में

ट्रेन से गुजरते हुए
अक्सर ही लगा
हाथ बढ़ाकर छू दूंगी
तो हरहरा कर गिर पड़ेंगी ये ढूहें
भेद खोलतीं अपने मन का

मैं कई बार उन ढूहों में उतरी
तुम्हे खोजते हुए
लगता कितना सरल है तुम्हें पा जाना
पर अक्सर ही ढूहें
दीवार सी खड़ी हो जाती हैं
जिसके गिर्द इतने रास्ते निकलते हैं
कि पता ही नहीं चलता
किस राह पे मुड़े हो तुम
तुम्हारे कदमों के निशान कभी नहीं मिले
इन ढूहों में मुझे
पर हाँ
तुम्हारे गंध से व्याकुल रहती हैं
यहाँ की हवाएँ
घटाएँ

मैं उन दीवारों के पार जाना चाहती हूँ प्रिय!