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"माँ, तुम एक छाया सी / सुमन केशरी" के अवतरणों में अंतर

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मुझे मेरे ही खेल की दुनिया में मगन कर आहिस्ता से चली गई तुम ...
 
मुझे मेरे ही खेल की दुनिया में मगन कर आहिस्ता से चली गई तुम ...

17:07, 31 मार्च 2014 का अवतरण

मां
ऐसा क्यों होता है
मैं जब जब याद करती हूं तुम्हें
पहुंच जाती हूं
सन 62 की उस दोपहरी में
जिसे तुमने भारी चादर डाल बदल दिया था झुरमुट में
तुम सजीव छाया सी छुंकी
सर और कानों की लौ सहलाती
कुछ गुनगुना रही थी
अस्फुट स्वर में।



मुझे मेरे ही खेल की दुनिया में मगन कर आहिस्ता से चली गई तुम ...
आज भी जब मैं ढूंढ़ती हूं तुम्हें
तुम एक छाया सी दिखती हो
होने न होने के बीच कहीं।